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धर्मामृत ( अनगार) चरु:-स्थाली । जुगुप्स्यानि-सूकाजनकानि मूत्रार्तवादीनि । वीभत्सः-जुगुप्साप्रभवो हृत्संकोचकृद्रसः । विभावाः-कारणानि । भावाः-पदार्था दोषधातुमलादयः । सरीसृजीति-पुनः पुनः सृजति । ३ तदुपस्कारैकसारं-तस्य नारीवपुष उपस्कारो गुणान्तराधानं चारुत्वसौरभ्याद्यापादनं, स एवैक उत्कृष्टः
सारः फलं यस्य तेनैकेन वा सारं ग्राह्यम् । जगत्-भोगोपभोगाप्रपञ्चम् । चराचरस्यापि जगतो रामाशरीर
रम्यतासंपादनद्वारेणैव कामिनामन्तःपरमनिर्वृतिनिमित्तत्वात्तदुपभोगस्यैव लोके परमपुरुषार्थतया प्रसिद्धत्वात् । ६ तदाह भद्ररुद्रटः
'राज्ये सारं वसुधा वसुंधरायां पुरं पुरे सौधम् ।
सौधे तल्पं तल्पे वराङ्गनानङ्गसर्वस्वम् ॥'-[ काव्यालंकार ॥७।९७॥] संप्रत्ययप्रत्यये-अतद्गुणे वस्तुनि तद्गुणत्वेनाभिनिवेशः संप्रत्ययस्तत्कारणके ।।९४॥
अथ परमावद्ययोषिदुपस्थलालसस्य पृथग्जनस्य विषयव्यामुग्धबुद्धेर्दुस्सहनरकदुःखोपभोगयोग्यताकरणोद्योगमनुशोचति
विष्यन्दिक्लेदविश्राम्भसि युवतिवपुःश्वभ्रभूभागभाजि,
__ क्लेशाग्निक्लान्तजन्तुव्रजयुजि रुधिरोद्गारग)धुरायाम् । आधुनो योनिनद्यां प्रकुपितकरणप्रेतवर्गोपसर्ग
मूर्छालः स्वस्य बालः कथमनुगुणयेद्वै तरं वैतरण्याम् ।।९५॥
उद्दीपन रूपसे जनक दोष धातु मल आदि पदार्थों के समूहसे उस नारीके शरीरका निर्माण करके ब्रह्मा जगत्का निर्माण करता है क्योंकि नारीके शरीरको सुन्दरता प्रदान करना ही इस जगत्का एक मात्र सार है । अर्थात् नारीके शरीरको सुन्दरता प्रदान करनेके द्वारा ही यह चराचर जगत् कामी जनोंके मनमें परमनिवृत्ति उत्पन्न करता है, लोकमें नारीके शरीरके उपभोगको ही परम पुरुषार्थ माना जाता है अथवा जिसमें जो गुण नहीं है उसमें वह गुण मान लेनेसे होनेवाले सुखमें आसक्त कौन मनुष्य दुःखका अनुभव करता है ? कोई भी नहीं करता ॥९४॥
स्त्रीशरीरके निन्दनीय भागमें आसक्त और विषयों में ही संलग्न मूढ पुरुष नरकके दुःसह दुःखोंको भोगनेकी योग्यता सम्पादन करने में जो उद्योग करता है उसपर खेद प्रकट करते हैं
योनि एक नदीके तुल्य है उससे तरल द्रव्यरूप दुर्गन्धित जल सदा झरता रहता है, युवतीके शरीररूपी नरकभूमिके नियत भागमें वह स्थित है, दुःखरूपी अग्निसे पीड़ित जन्तुओंका समूह उसमें बसता है और रुधिरके बहावसे वह अत्यन्त ग्लानिपूर्ण है। उस योनिरूपी नदीमें आसक्त और क्रुद्ध इन्द्रियरूपी नारकियोंके उपसर्गोंसे मूर्छित हुआ मूढ़ अपनेको कैसे वैतरणी नदीमें तिरनेके योग्य बना सकेगा ? ॥१५॥
विशेषार्थ-कामान्ध मनुष्य सदा स्त्रीकी योनिरूपी नदीमें डूबा रहता है। मरनेपर वह अवश्य ही नरक जायेगा। वहाँ भी वैतरणी नदी है। यहाँ उसे इन्द्रियाँ सताती हैं तो मूर्छित होकर योनिरूप नदीमें डुबकी लगाता है। नरकमें नारकी सतायेंगे तो वैतरणीमें डूबना होगा। मगर उसने तो नदीमें डूबना ही सीखा है तैरना नहीं सीखा। तब वह कैसे वैतरणी पार कर सकेगा ? उसे तो उसीमें डूबे रहना होगा ॥९५॥
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