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धर्मामृत (अनगार
अथ शिष्यशासनेऽपि क्वचित् क्रोधोद्भवं भवति
यति ॥ १२२॥
यः शिष्यते हितं शश्वदन्तेवासी सुपुत्रवत् । सोऽप्यन्तेवासिनं कोपं छोपयत्यन्तरान्तरा ॥ १२२ ॥
अन्तेवासी - शिष्यः । अन्तेवासिनं – चण्डालम् । साधुजनानामस्पृश्यत्वात् । छोपयति- स्पर्श
अथ चतुष्पदपरिग्रहं प्रतिक्षिपति
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द्विपदैरप्यसत्संगश्चेत् किं तहि चतुष्पदैः । तिक्तमप्यामसन्त्राग्नर्नायुष्यं किं पुनघू तम् ॥ १२३॥
तरह अत्यन्त परिचयके कारण सिरचढ़े जो दासी दास स्वामीके अनिष्ट करने में लगे रहते हैं वे किसके लिए शान्तिदाता हो सकते हैं ॥ १२१ ॥
विशेषार्थ - भृत्य में और दासी-दासमें अन्तर है । जो काम करनेका वेतन पाता है वह भृत्य है । भृतिका अर्थ है ' ' कामका मूल्य' । और जो पैसा देकर खरीद लिया जाता है वह दास या दासी कहता है । परिग्रह परिमाण व्रतके अतिचारों में वास्तु, खेत आदिके साथ जो दासी दास दिये हैं वे खरीदे हुए गुलाम ही हैं। पं. आशाधरजीने अपनी टीकामें दासका अर्थ 'क्रीतः कर्मकरः' अर्थात् मूल्य देकर खरीदा गया कर्मचारी किया है । स्व. श्री नाथूरामजी प्रेमीने 'जैन साहित्य और इतिहास' के द्वितीय संस्करण, पृ. ५१० आदिमें परिग्रह परिमाण व्रत के दास - दासीपर विस्तार से प्रकाश डाला है । भगवती आराधना में (गा. १९६२) सचित्त परिग्रह के दोष बतलाये हैं । उसकी विजयोदया टीका में 'सचित्ता पुण गंथा' का अर्थ 'दासीदास गोमहिष्यादयः' किया है । अर्थात् दासी दासकी भी वही स्थिति थी जो गौभैंस आदि की है। उन्हें गाय-भैंस की तरह बाजारोंमें बेचा जाता था। उनसे उत्पन्न सन्तानपर भी मालिकका ही अधिकार रहता था । इस प्रथाका अत्यन्त हृदयद्रावक वर्णन अमेरिकी लेखककी पुस्तक 'अंकिल टामस केविन' में चित्रित है । पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं । कोई अहिंसाका एकदेश व्रती भी मानव के साथ पशु-जैसा व्यवहार कैसे कर सकता है ? अब तो यह प्रथा सभ्य देशों से उठ गयी है किन्तु इससे घृणित व्यवहार शायद ही दूसरा रहा हो । पशुओं की तरह खरीदे गये दास-दासियोंकी परिग्रह में गणना भी आपत्तिजनक प्रतीत होती है ॥ १२१ ॥
आगे कहते हैं कि शिष्योंपर अनुशासन करनेमें भी कभी-कभी क्रोध उत्पन्न हो
आता है
जिस शिष्यको गुरुजन सुपुत्रकी तरह रात-दिन हितकी शिक्षा देते हैं, वह भी बीचबीच में चाण्डालके तुल्य क्रोधका स्पर्श करा देता है ॥ १२२ ॥
विशेषार्थ - शिष्यको शिक्षण देते समय यदि शिष्य नहीं समझता या तदनुसार आचरण नहीं करता तो गुरुको भी क्रोध हो आता है । इससे आशय यह है कि मुमुक्षुको शिष्यों का भी संग्रह नहीं करना चाहिए || १२२ ॥
आगे चतुष्पद परिग्रहका निषेध करते हैं
यदि दो पैरवाले मनुष्य आदिका संग बुरा है तो चार पैरवाले हाथी-घोड़ों के संगका तो कहना ही क्या है । आँवके कारण जिसकी उदराग्नि मन्द पड़ गयी है उसके लिए यदि
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