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धर्मामृत (अनगार )
आदिशब्दाद्दिव्यशुद्धयुत्तरकाले रामस्यापमाननं तपस्यतश्चोपसर्गकरणम् । पति - अर्जुनम् । आस - चिक्षेप । आपदि - स्वयंवरामण्डपयुद्धादिव्यसनावर्ते । द्रौपदी -- पञ्चालराजपुत्री ॥ ११२ ॥
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अथ वल्लभाया दूरक्षत्व - शीलभङ्ग -सद्गुरुसंगान्तराय हेतुत्व - परलोकोद्योग प्रतिबन्धकत्वकथनद्वारेण मुमुक्षूणां प्रागेवापरिग्राह्यत्वमुपदिशति
तैरश्चोऽपि वधूं प्रदूषयति पुंयोगस्तथेति प्रिया
सामीप्याय तुजेऽप्यसूयति सदा तद्विप्लवे दूयते । तद्विप्रतिभयान्न जातु सजति ज्यायोभिरिच्छन्नपि,
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त्यक्तुं स कुतोऽपि जीर्यतितरां तत्रैव तद्यन्त्रितः ॥११३॥
तथा सत्यं तेन वा प्रभञ्जनचरितादिप्रसिद्धेन प्रकारेण । तत्र हि राज्ञी मर्कटासक्ता श्रूयते । तुजे - पुत्राय । तद्विप्लवे - प्रियाशीलभङ्गे । सजति — संगं करोति । ज्यायोभिः -- धर्माचार्यादिभिः ॥ ११३ ॥
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कपटसे हा राम, हा रामकी ध्वनि की तो सीताने घोर आग्रह करके रामको उसकी मदद के लिए भेजा। पीछेसे रावणने उसका हरण किया। उसके वियोगमें रामने घोर कष्ट सहन किया । फिर सीता के विषयमें यह आशंका की गयी कि रावणके घरमें इतने लम्बे समय तक रहने से वह शीलवती कैसे हो सकती है । इससे भी रामचन्द्रको मार्मिक व्यथा हुई और उन्हें सीताकी अग्निपरीक्षा लेनी पड़ी। ये सब मान- प्रवास नामक विप्रलम्भके द्वारा दुःखोत्पत्ति उदाहरण हैं । यह सब कथा पद्मपुराण में वर्णित है । तथा पंचाल देशके राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी तो प्रसिद्ध है । स्वयंवर मण्डपमें उसने अर्जुनके गलेमें वरमाला डाली तो वह टूटकर पाँचों पाण्डवोंपर गिरी। इससे यह अपवाद फैला कि उसने पाँचों पाण्डवोंको वरण किया है । वरणके बाद अर्जुनको स्वयंवर में आगत कौरव आदि राजाओंसे युद्ध करना पड़ा । जुए में हार जानेपर कौरव सभा में द्रौपदीका चीर हरण किया गया। जो आगे महाभारतका कारण बना। यह सब कथा हरिवंशपुराण में वर्णित है । यह पूर्वानुराग और प्रवास विप्रलम्भके द्वारा दुःखका उत्पादक दृष्टान्त है ॥ ११२ ॥
आगे बतलाते हैं कि स्त्रीकी रक्षा करना बहुत कठिन है, उनका यदि शील भंग हो ये तो बड़ा कष्ट होता है, वे सद्गुरुओंकी संगति में बाधक हैं, उनसे परलोक के लिए उद्योग करनेमें रुकावट पड़ती है । अतः मुमुक्षुओंको पहले ही उनका पाणिग्रहण नहीं करना चाहिए
दूसरोंकी तो बात ही क्या, पुत्र भी यदि प्रियाके निकट रहे। 'उसपर भी दोषारोपण लोक करते हैं और यह उचित भी है क्योंकि तिर्यच पुरुषका भी सम्बन्ध स्त्रीको दूषित कर देता है फिर मनुष्यका तो कहना ही क्या है । तथा अपनी पत्नीके शीलभंगकी बात भी सुनकर मनुष्यका मन सदा खेदखिन्न रहता है । स्त्रीसे प्रीति टूट जानेके भय से मनुष्य धर्मगुरुओंके पास भी नहीं जाता । पुत्रमरण आदि किसी कारण से घर छोड़ना चाहते हुए भी स्त्रीके बन्धन में बँधा हुआ घरमें ही जराजीर्ण होता है-बूढ़ा होकर मर जाता है ॥ ११३ ॥
विशेषार्थं - कहावत प्रसिद्ध है कि विवाह ऐसा फल है कि जो खाता है वह पछताता है । नीतिशास्त्र में भी कहा है कि रूपवती भार्या शत्रु है । जो लोग वृद्धावस्था में विवाह करते हैं उन्हें अपनी नयी नवेलीमें अति आसक्ति होती है । फलतः यदि उनका युवा पुत्र अपनी नयी माँसे अधिक प्रीति करता है तो उन्हें यह शंका सदा सताती रहती है कि कहीं
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