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चतुर्थ अध्याय
अथ संयमसेविनां चित्तं येन तेन निरीक्षणवचनादिप्रकारेणान्तनिपत्य स्त्रिया विकार्यमाणं प्रतीकारं भवतीति भीत्युत्पादनमुखेन सुतरां तत्परिहारे तान् जागरयति-
चित्रमेकगुणस्नेहमपि संयमिनां मनः ।
यथा तथा प्रविश्य स्त्री करोति स्वमयं क्षणात् ॥ ८३ ॥
एकगुणस्नेहं - उत्कृष्टगुणानुरागमेकत्वरसिकं वा विरोधाभासपक्षे तु 'न जघन्यगुणानाम्' इत्यभिधानात् एकगुणस्नेहस्य केनापि सह संबन्धो न स्यादिति द्रष्टव्यम् ॥८३॥
अथापशोsपि स्त्री सम्पर्कः संयतस्य स्वार्थभ्रंशकरोतीति शिक्षार्थमाहकणिकामपि ककंट्या गन्धमात्रमपि स्त्रियाः ।
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दुःशक
स्वादुशुद्धां मुनेश्चित्तवृत्ति व्यर्थीकरोत्यरम् ॥८४॥
अल्पमप्यालोकनस्पर्शनवचनादिकं पक्षे घ्राणग्राह्यो गुणो गन्धः । पक्षद्वयेऽप्यसावेव वा । स्वादु शुद्धां - सानन्दवीतरागां मधुरशुभ्रां च । व्यर्थीकरोति - विगतो विरुद्धो वाऽर्थः प्रयोजनं कर्मक्षपणं मण्डकाद्युत्पादश्च यस्याः सा व्यर्था ॥ ८४॥
अथ स्त्रीसांगत्यदोषं दृष्टान्तेन स्पष्टयन्नाह -
विशेषार्थ - सच्चे मान्त्रिकोंके मन्त्रोंके प्रभावसे सर्प विष उतर जाता है और मनुष्य होश में आ जाता है किन्तु स्त्रीके कटाक्षरूपी सर्पसे डँसा हुआ मनुष्य भव भव में ज्ञानशून्य बना रहता है, उसपर सच्चे गुरुओंके उपदेशका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता ॥ ८३ ॥
संयमका पालन करनेवाले संयमियोंका मन भी अवलोकन भाषण आदि किसी भी प्रकार से भीतर घुसकर स्त्रियाँ ऐसा विकृत कर देती हैं कि उसका प्रतीकार बहुत ही कठिन हो जाता है । इस प्रकारका भय उत्पन्न करके उनका बहुत ही उचित परिहार करनेके लिए सावधान करते हैं—
संयमयों का मन एकगुणस्नेह है फिर भी आश्चर्य है कि स्त्री जिस किसी तरह उसमें प्रवेश करके क्षणभर में ही अपने रूप कर लेती है ॥८३॥
विशेषार्थ – संयमियोंके मनमें सम्यग्दर्शनादि गुणोंमें उत्कृष्ट अनुराग होता है अथवा वे आत्माके एकत्व के रसिक होते हैं इसलिए उनके मनको 'एकगुणस्नेह' कहा है । यह तो यथार्थ ही है इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । किन्तु तत्त्वार्थ सूत्रके पाँचवें अध्याय में कहा है- 'न जघन्य गुणानाम्' । जघन्य अर्थात् एक स्निग्ध या रूक्ष गुणवाले परमाणुका बन्ध नहीं होता । और संयमीका मन एकगुणस्नेहवाला है फिर भी उसको स्त्री अपने रूप कर लेती है, यही आश्चर्य है । इसे साहित्य में विरोधाभास नामक अलंकार कहते हैं ॥ ८३ ॥ आगे शिक्षा देते हैं कि थोड़ा-सा भी स्त्री-सम्पर्क संयमोंके स्वार्थका विनाश कर
देता है
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जैसे कर्कटीको गन्धमात्र गेहूँके स्वादु और शुद्ध आटेको व्यर्थ कर देती है फिर उससे स्वादिष्ट मण्डे आदि नहीं बन सकते। उसी तरह स्त्रीकी गन्धमात्र भी - उसका देखना, स्पर्शन और वचन मात्र भी मुनिकी सानन्द वीतराग चित्तवृत्तिको तत्काल ही व्यर्थ कर देती है । फिर उससे कर्मोंका क्षपणरूप कार्य नहीं होता ||८४||
स्त्रीसंगतिके दोषोंको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं
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