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चतुर्थ अध्याय वरारोहा-वर उत्कृष्ट आरोहो नितम्बोऽस्या असौ, उत्तमस्त्रीत्यर्थः । भूयसा-बहुतरेण ॥८८ अथ स्त्रीदृष्ट्यादिदोषानुपसंगृह्णान्नाह
दृष्टिविषदृष्टिरिव दृक कृत्यावत् संकथाग्निवत्संगः ।
स्त्रीणामिति सूत्रं स्मर नामापि ग्रहवदिति च वक्तव्यम् ॥८९॥ दृष्टिविष:-सर्पविशेषः। कृत्यावत्-विद्याविशेषो यथा। सूत्रं-नानार्थसूत्रकत्वात् । वक्तव्यं- . सूत्रातिरिक्तं वचनम्, एकार्थपरत्वात् ।।८९॥ अथ स्त्रीप्रसंगदोषानुपसंहरन्नाह
कि बहुना चित्रादिस्थापितरूपापि कथमपि नरस्य।
हृदि शाकिनीव तन्वी तनोति संक्रम्य वैकृतशतानि ॥१०॥ वैकृतशतानि । तानि च
'खद्धो खद्धो पभणइ लुंचइ सीसं न याणए कि पि।
गयचेयणो हु विलवइ उड्ढं जोएइ अह ण जोएइ ॥' [ ] १२ इत्यादीनि मन्त्रमहोदधौ शाकिन्या स्त्रियास्तु प्रागुक्तिरिति ॥९॥ होनेपर ही मनुष्य स्त्रीके प्रति आकृष्ट होकर उसकी कोमल बाहुओंके बन्धनमें बंधता है । शरीरके इस तुच्छ बन्धनसे आत्माका मोहबन्धन बलवान् है। उससे छूटनेका प्रयत्न करना चाहिए ।।८८॥
आगे स्त्री दृष्टि आदिके दोषोंको बतलाते हैं
हे साधु ! इस सूत्रवाक्यको स्मरण रखो कि स्त्रीकी दृष्टि दृष्टि विष सर्पकी दृष्टिकी तरह है। उनके साथ बातचीत कृत्या नामक मारण विद्याकी तरह है। उनका संग अग्निकी तरह है। तथा इस वक्तव्यको भी याद रखो कि उनका नाम भी भूतकी तरह है ।।८९॥
विशेषार्थ-जिस वाक्यसे अनेक अर्थोंका सूचन होता है उसे सूत्र कहते हैं। ब्रह्मचारीके लिए भी कुछ सूत्र वचन सदा स्मरणीय हैं, उन्हें कभी भूलना नहीं चाहिए। जैसे दृष्टिविषजिसकी आँखमें विष होता है उसे दृष्टिविष कहते हैं। उसकी दृष्टिसे ही मनुष्यका बल क्षीण हो जाता है। स्त्रीकी दृष्टि भी ऐसी ही घातक है। जैसे मारणविद्या मनुष्योंके प्राणोंको हर लेती है उसी तरह स्त्रीके साथ संभाषण साधु के संयमरूपी प्राणको हर लेता है। तथा जैसे अग्निका संसर्ग जलाकर भस्म कर देता है वैसे ही स्त्रीका संग साधके संयमरूपी रत्नको जलाकर राख कर देता है। अतः स्त्रीकी दृष्टिसे, उसके साथ संभाषणसे उसके संसर्गसे दूर ही रहना चाहिए। इसके साथ ही इतना वक्तव्य और भी याद रखना चाहिए कि स्त्रीकी दृष्टि आदि ही नहीं, उनका नाम भी भूतकी तरह भयानक है ॥८९।।
आगे स्त्रीके संसर्गसे होनेवाले दोषोंका उपसंहार करते हैं
अधिक कहनेसे क्या ? चित्र, काष्ठफलक आदिमें अंकित स्त्री भी किसी भी प्रकारसे शाकिनीकी तरह मनुष्यके हृदयमें प्रवेश करके सैकड़ों विकारोंको उत्पन्न करती है ॥२०॥
१. -न्याः कथितानि । स्त्रियास्तु प्राक्प्रबन्धेन-भ. कु. क. ।
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