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प्रथम अध्याय
अथ पापपुण्ययोरपकारोपकारौ दृष्टान्तद्वारेण द्रढयितुं वृत्तद्वयमाहतत्तादृक्कमठोपसर्गलहरीसर्गप्रगल्भोष्मणः
किं पार्वे तमुवप्रमुग्रमुदयं निवंच्मि दुष्कर्मणः । किं वा तादृशदुर्दशाविलसितप्रध्वंसदीप्रौजसो
धर्मस्योरु विसारि सख्यमिह वा सोमा न साधीयसाम् ।।५७॥ अत्रावोचत स्वयमेव स्तुतिषु यथा
वज्रष्वद्भुतपञ्चवर्णजलदेष्वत्युग्रवात्यायुधबातेष्वप्सरसां गणेऽग्निजलधिव्यालेषु भूतेष्वपि । यद्ध्यानानुगुणीकृतेषु विदधे वृष्टि मरुद्वादिनी
गोत्रा यं प्रतिमेघमाल्यसुरराट् विश्वं स पाश्र्वोऽवतात् ।। लहरी-परम्परा, ऊष्मा-दुःसहवीर्यानुभावः । साधीयसाम्-अतिशयशालिनाम् ॥५७॥
भोगना पड़ता है। फिर भी धर्माचरण करनेसे मनुष्यके मनमें दुःख भोगते हुए भी जो शान्ति बनी रहती है वही धर्मका फल है। अन्यथा विपत्तिमें मनुष्य आत्मघात तक कर लेते हैं ॥५६॥
पापके अपकार और पुण्यके उपकारको दृष्टान्तके द्वारा दृढ़ करनेके लिए दो पद्य कहते हैं
हम तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ पर कमठके द्वारा किये गये उन प्रसिद्ध भयानक उपसर्गोंकी परम्पराको जन्म देने में समर्थ दुःस्सह शक्तिशाली दुष्कर्म के उस आगमप्रसिद्ध तीव्र दुःसह उदयका कहाँ तक कथन करें। तथा इन्द्र के द्वारा नियुक्त धरणेन्द्र और पद्मावती नामक यक्ष-यक्षिणी द्वारा भी दूर न की जा सकनेवाली पार्श्व प्रभुकी अत्यन्त दुःखदायक दुर्दशाको रोकने में अधिकाधिक प्रतापशाली उस धर्मकी सर्वत्र सर्वदा कार्यकारी महती मैत्रीका भी कहाँ तक गुणगान करें ? ठीक ही है इस लोकमें अतिशयशालियोंकी कोई सीमा नहीं है ।।५७॥
विशेषार्थ-जैन शास्त्रोंमें भगवान् पार्श्वनाथ और उनके पूर्व जन्मके भ्राता कमठके वैरकी लम्बी कथा वर्णित है। जब भगवान् पाश्र्वनाथ प्रव्रज्या लेकर साधु बन गये तो अहिच्छत्रके जंगलमें ध्यानमग्न थे। उधरसे उनका पूर्व जन्मोंका वैरी कमठ जो मरकर व्यन्तर हुआ था, जाता था । भगवान् पाश्वनाथको देखते ही उसका क्रोध भड़का और उसने भीषण जलवृष्टि, उपलवृष्टि, झंझावातके साथ ही अग्नि, समुद्र, सर्प, भूत, वैताल आदिके द्वारा इतना त्रस्त किया कि इन्द्रका आसन भी डोल उठा। इन्द्रके आदेशसे धरणेन्द्र और पदावती संकट दर करनेके लिए आये। किन्त वे भी उन उत्पातोंका निवारण नहीं कर सके। किन्तु भगवान पार्श्वनाथ रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए, वे बराबर ध्यानमग्न बने रहे। उनकी उस धर्माराधनाने ही उस संकटको दूर किया। इसी परसे ग्रन्थकार कहते हैं कि पापकर्मकी शक्ति तो प्रबल है ही किन्तु धर्मकी शक्ति उससे भी प्रबल है जो बड़े-बड़े उपद्रवोंको भी दूर करनेकी क्षमता रखती है।
आशाधरजीने अपनी टीकामें दो विशिष्ट बातें लिखी हैं। एक इन्द्रकी आज्ञासे धरणेन्द्र पद्मावती आये और दूसरे वे व्यन्तर कृत उपद्रवको दूर नहीं कर सके।
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