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द्वितीय अध्याय
क्षिप्ते - विश्लेषिते । स्फटिके - स्फटिकभाजने । अतिशुद्धं -- त्यक्तशंकादिदूषणत्वेन शुद्धादोपशमिकातिशयेन शुद्धं प्रक्षोणप्रतिबन्धकत्वात् । अतएव भाति - नित्यं दीप्यते कदाचित् केनापि क्षोभयितुमशक्यत्वात् । तदुक्तम्
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“रूपैर्भयङ्करैर्वाक्यैर्हेतुदृष्टान्तदर्शिभिः ।
सम्यक्त्वो न क्षुभ्यति विनिश्चलः ॥ [ अमि. पं. सं. १ २९३]
क्षेत्रज्ञे - आत्मनि ॥५५॥
अथ वेदकस्यान्तरङ्ग हेतुमाह
पाकाद्देशन सम्यक्त्व प्रकृतेरुवयक्षये ।
शमे च वेदकं षण्णामगाढं मलिनं चलम् ॥५६॥
पाकात् — उदयात् । उदयक्षये - मिथ्यात्वादीनां षण्णामुदयप्राप्तानामुदयस्य निवृत्तौ । शमेतितेषामेवानुदयप्राप्तानामुपशमे सदवस्थालक्षणे ॥५६॥
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विशेषार्थ - क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट होकर पुनः लुप्त नहीं होता, सदा रहता है; क्योंकि उसके प्रतिबन्धक मिथ्यात्व आदि कर्मोंका क्षय हो जाता है । इसीसे शंका आदि दोष नहीं होने से वह औपशमिक सम्यग्दर्शनसे अति शुद्ध होता है। कभी भी किसी भी कारण से उसमें क्षोभ पैदा नहीं होता। कहा भी है
'भयंकर रूपोंसे, हेतु और दृष्टान्तपूर्वक वचन विन्यास से क्षायिक सम्यक्त्व कभी भी डगमगाता नहीं है, निश्चल रहता है अर्थात् भयंकर रूप और युक्तितर्कके वाग्जाल भी उसकी श्रद्धामें हलचल पैदा करने में असमर्थ होते हैं ' ॥ ५५ ॥
वेदक सम्यक्त्वका अन्तरंग हेतु कहते हैं
सम्यग्दर्शनके एकदेशका घात करनेवाली देशघाती सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे तथा उदय प्राप्त मिथ्यात्व आदि छह प्रकृतियोंके उदयकी निवृत्ति होनेपर और आगामी कालमें उदयमें आनेवाली उन्हीं छह प्रकृतियोंका सदवस्थारूप उपशम होनेपर वेदक अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । वह सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ़ होता है ॥५६॥
विशेषार्थ - इस सम्यक्त्वको क्षायोपशमिक भी कहते हैं और वेदक भी कहते हैं । कार्मिक परम्परामें प्रायः वेदक नाम मिलता है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्वका सर्वत्र यही लक्षण पाया जाता है जो ऊपर ग्रन्थकारने कहा है, किन्तु वीरसेन स्वामीने धवलामें (पु. ५, पृ. २००) इसपर आपत्ति की है । वे कहते हैं
'सम्यक्त्व प्रकृतिके देशघाती स्पर्द्धकोंके उदय के साथ रहने वाला सम्यक्त्व परिणाम क्षायोपशमिक है | मिध्यात्व के सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदद्याभावरूप क्षयसे, उन्हींके सदवस्थारूप उपशमसे, और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदयक्षयसे तथा उन्हींके सदवस्थारूप उपशम से अथवा अनुदयोपशमसे और सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाती स्पर्द्धकोंके उदयसे क्षायोपशमिक भाव कितने ही आचार्य कहते हैं । किन्तु वह घटित नहीं होता; क्योंकि उसमें अव्याप्ति दोष आता है । अतः यथास्थित अर्थके श्रद्धानको घात करनेवाली शक्ति सम्यक्त्व प्रकृतिके स्पर्धकों में क्षीण हो जाती है इसलिए उनकी क्षायिक संज्ञा है । क्षीण हुए स्पर्धकोंके उपशम अर्थात् प्रसन्नताको क्षयोपशम कहते हैं। उससे उत्पन्न होनेसे वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक है यह घटित होता है ।'
वह सम्यक्त्व अगाढ़, मलिन और चल होता है ॥ ५६ ॥
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