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धर्मामृत (अनगार )
किचित्त्वां त्याजयिष्यामि हुंकरोत्यत्र गौः कुतः । याचन्यादिषु दृष्टान्ता इत्थमेते प्रदर्शिताः ॥ [
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किं च, अहमयोग्यं न ब्रवीमीत्येतावता सत्यव्रतं पालितमिति मुमुक्षुणा नाश्वसनीयं यावता परेणोच्यमानमप्यसत्यवचनं शृण्वतोऽशुभ परिणामसंभवात् कर्मबन्धो महान् भवतीत्यसत्यस्य वचनमिव श्रवणमपि यत्नतः साधुना परिहार्यम् । तदुक्तम्
नहीं है । इस तरह दो रूप होनेसे न सत्य है और न झूठ । स्वाध्याय करो, असंयमसे विरत होओ इस प्रकारकी अनुशासनरूप वाणी आज्ञापनी है। इस आदेशको दूसरा व्यक्ति पाले यान पाले, इसलिए यह वचन न एकान्तसे सत्य है और न असत्य । आप ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदि या पीछी आदि देवें इस प्रकार याचना करनेको याचनी भाषा कहते हैं । दाता देवे या न देवे, इस अपेक्षा यह वचन भी अनुभयरूप है । किसीसे पूछना कि क्या तुम्हें जेल में कष्ट है, पृच्छनी भाषा है । यदि कष्ट है तो सत्य है नहीं है तो असत्य है । अतः पृच्छावचन न सत्य है और न असत्य है । धर्मकथाको प्रज्ञापनी भाषा कहते हैं । यह बहुत-से श्रोताओंको लक्ष करके की जाती है । बहुत-से लोग उसके अनुसार करते हैं, बहुत-से नहीं करते। अतः इसे भी न सत्य कह सकते हैं और न झूठ । किसीने गुरुसे न कहकर 'मैं इतने समय तक अमुक वस्तुका त्याग करता हूँ' ऐसा कहा । यह प्रत्याख्यानी भाषा है । पीछे गुरुने कहा कि तुम अमुक वस्तुका त्याग करो । उसके पहले त्यागका काल अभी पूरा नहीं हुआ इसलिए उसका पहला किया हुआ त्याग एकान्त से सत्य नहीं है और गुरुकी आज्ञासे उस त्यागको पालता है इसलिए कोई दोष न होनेसे झूठा भी नहीं है अतः अनुभयरूप है । ज्वरसे ग्रस्त रोगी कहता है घी और शक्कर से मिश्रित दूध अच्छा नहीं है, दूसरा कहता है अच्छा है । माधुर्य आदि गुणोंके सद्भाव तथा ज्वरकी वृद्धिमें निमित्त होने से 'अच्छा नहीं है' ऐसा कहना न तो सर्वथा झूठ ही है न सत्य ही है अतः अनुभयरूप है । यह ठूंठ है या पुरुष, यह संशय वचन है । यह भी दोनों में से एकका सद्भाव और दूसरेका अभाव होनेसे न सत्य है और न झूठ । अपराजित सूरिने अपनी विजयोदया टीकामें अँगुली चटकाने आदि शब्दको अनक्षरी भाषा कहा है। ध्वनि और भाषा में अन्तर है । ताल्वादि परिस्पन्दसे जो शब्द होता है उसे भाषा कहते हैं । अतः गो. जीवकाण्डकी टीका में जो
न्द्र आदि की भाषाको अनक्षरी भाषा कहा है वह ठीक प्रतीत होता है । दशवैकालिकै सूत्र में उक्त प्रथम गाथामें कहे हुए भेद तो आमन्त्रणी से लेकर इच्छानुलोमा पर्यन्त वही हैं । बल्कि गाथा भी वही है । दूसरीमें भेद है । यथा—
अनभिगृहीत भाषा, जैसे डित्थ ( जिसका कुछ अर्थ नहीं । ) अभिगृहीत भाषा - - जैसे घट | जिस शब्द के अनेक अर्थ होनेसे सुननेवाला सन्देह में पड़ जाये वह संशयकरणी भाषा है। जैसे सैन्धव । सैन्धवके अनेक अर्थ होते हैं । व्याकृत भाषा, जिससे स्पष्ट अर्थ प्रकट हो । जैसे यह देवदत्तका भाई है । अव्याकृत भाषा - जिससे स्पष्ट अर्थबोध न हो । जैसे
१. आमंतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणी अ पन्नवणी ।
पच्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥
अभिगहिया भासा भासा अ अभिग्गहम्मि बोधव्वा ।
संसकरणी भासा वायड अग्वायडा चेव ॥ - दशवं, ७ अ., ४२-४३ गा. ।
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