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चतुर्थं अध्याय
अथ त्रयोदशभिः पद्यैः स्त्रीसंसर्गदोषान् व्याख्यातुकामस्तासामुपपत्तिपूर्वकं दूरपरिहार्यत्वमादावनु
शास्ति
सिद्धिः काऽप्यजितेन्द्रियस्य किल न स्यादित्यनुष्ठीयत,
सुष्ट्वामुत्रिक सिद्धयेऽक्षविजयो दक्षः स च स्याद् ध्रुवम् । चेतः संयमनात्तपः श्रुतवतोऽप्येतच्च तावद् भवेद,
यावत्पश्यति नाङ्गनामुखमिति त्याज्याः स्त्रियो दूरतः ॥७८॥
कापि — ऐहिकी पारत्रिकी वा । अङ्गनामुखं - प्रशस्तमङ्गं यस्या साङ्गना, तस्या वक्त्रम् । उपपत्तिमात्रार्थमङ्गनाग्रहणं स्त्रीमात्र संसर्गेऽपि सद्वृत्त विप्लवोपलम्भात् । अत एव त्याज्याः स्त्रिय इति सामान्येनोक्तम् । 'द्वयमेव तपः सिद्धा बुधाः कारणमूचिरे ।
यदनालोकनं स्त्रीणां यच्च संग्लापनं तनोः ॥' [ यशस्तिलक ११८१ ] ॥७८॥
विशेषार्थ - भगवती आराधना गा. ९४९, ५०, ५१ में उक्त दृष्टान्त' आते हैं । यथा'साकेत नगरीका राजा देवरति अपनी रानी रक्तामें अति आसक्तिके कारण राज्य से निकाल दिया गया । मार्गमें रक्ता एक पंगुल गायकपर आसक्त हो गयी और उसने अपने पतिको छलसे नदीमें डुबो दिया । गोपवती बड़ी ईर्ष्यालु थी । उसका पति सिंहबल उससे पीड़ित होकर चला गया और उसने वहाँ अपनी शादी कर ली । गोपवतीने जाकर अपनी सपत्नीका सिर काट लिया । और जब उसका पति लौटकर आया तो उसे भी मार डाला || वीरमती एक चोरपर आसक्त थी । राजाने चोरको सूली दे दी । रातमें उठकर वीरमती चोरसे मिलने गयी और चोरने उसका ओठ काट लिया। दिन निकलने पर उसने हल्ला किया कि मेरे पति ने मेरा ओठ काट लिया । राजाने उसके पतिको प्राणदण्ड दिया । किन्तु पतिके मित्रने यह सब चरित्र देखा था उसने राजासे कहा । तब उसका पति बचा ।' ये तीनों कथाएँ हरिषेण रचित कथाकोशमें क्रमसे ८५, ८६, ८७ नम्बर पर हैं || ७७ ||
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आगे प्रन्थकार तेरह पद्योंसे स्त्री-संसर्गके दोष कहना चाहते हैं। सबसे प्रथम उपपत्तिपूर्वक उन स्त्रियोंको दूरसे ही त्यागनेकी सलाह देते हैं
आगममें कहा है - जिसकी इन्द्रियाँ उसके वशमें नहीं हैं उसे कोई भी इस लोक सम्बन्धी या परलोक सम्बन्धी इष्ट अर्थकी प्राप्ति नहीं होती । इसलिए परलोकमें अर्थकी सिद्धिके लिए उसके साधन में तत्पर चतुर मनुष्य अच्छी तरहसे इन्द्रियोंको जीतते हैं । इन्द्रियोंका जय मनके निरोधसे होता है । किन्तु तपस्वी और ज्ञानी पुरुषोंका भी मनोनिरोध तब होता है जब वह स्त्रीका मुख नहीं देखता । अतः मुमुक्षुओंको दूरसे ही स्त्रियोंका त्याग करना चाहिए ॥७८॥
१. 'साकेतपुराधिबदी देवरदी रज्ज-सुक्ख पब्भट्टो | पंगु हे छूडो नदीए रत्ताए देवीए ॥ ईसालुयाए गोववदीए गामकूटधूदिया सीसं । for पदो त भल्लएण पासम्मि सिंहवलो ॥ वीरमदीए सूलगदचोरदट्ठो ठिगाय वाणियओ । पदो दत्तो यता छिण्णो ओट्ठोत्ति आलविदो' ॥
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