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चतुर्थ अध्याय अथ कामोद्रेकस्य सहसा समग्रगुणग्रामोपमर्दकत्वं निवेदयति
कुलशीलतपोविद्याविनयादिगुणोच्चयम् ।
वन्दह्यते स्मरो दीप्तः क्षणात्तण्यामिवानलः ॥७॥ विनयादि-आदिशब्दात् प्रतिभा-मेधा-वादित्व-वाग्मित्व-तेजस्वितादयः। यनीति
'निकामं सक्तमनसा कान्तामुखविलोकने ।
गलन्ति गलिताश्रूणां यौवनेन सह श्रियः' [ ] दंदह्यते-गहितं दहति । गर्दा चात्र लौकिकालौकिकगुणग्रामयोरविशेषेण भस्मीकरणादवतरति । तृण्यां-तृणसंहतिम् ॥७०॥ अथ आसंसारप्रवृत्तमैथुनसंज्ञासमुद्भूताखिलदुःखानुभवधिक्काराग्रतःसरन्तन्निग्रहोपायमावेदयन्नाह- निःसंकल्पात्मसंवित्सुखरसशिखिनानेन नारीरिरंसा
संस्कारेणाद्य यावद्धिगहमधिगतः किं किमस्मिन्न दुःखम् । तत्सद्यस्तत्प्रबोधच्छिवि सहजचिदानन्वनिष्यन्दसान्द्रे
मज्जाम्यस्मिन्निजामत्मन्ययमिति विषमेत् काममुत्पित्सुमेव ॥७१॥ रसः-पारदः। तत्प्रबोधच्छिदि-नारीरिरंसासंस्कारप्राकट्यापनोदके । विधमेत्-विनाशयेत् । उत्पित्सु-उत्पत्त्यभिमुखम् । तथा चोक्तम्
'शश्वद्दःसहदुःखदानचतुरो वैरी मनोभूरयं न ध्यानेन नियम्यते न तपसा संगेन न ज्ञानिनाम् । देहात्मव्यतिरेकबोधजनितं स्वाभाविक निश्चलं
वैराग्यं परमं विहाय शमिनां निर्वाणदानक्षमम् ॥' [ ] ॥७१॥ आगे कहते हैं कि कामका वेग शीघ्र ही समस्त गुणोंको नष्ट कर देता है
जैसे आग तृणोंके समूहको जलाकर भस्म कर देती है वैसे ही प्रज्वलित कामविकार कुल, शील, तप, विद्या, विनय आदि गुणोंके समूहको क्षण-भरमें नष्ट कर देता है ।।७०॥
विशेषार्थ-कामविकार मनुष्यके लौकिक और अलौकिक सभी गुणोंको नष्ट कर देता है। वंश-परम्परासे आये हुए आचरणको कुल कहते हैं। सदाचारको शील कहते हैं। मन और इन्द्रियोंके निरोधको तप कहते हैं। ज्ञानको विद्या कहते हैं। तपस्वी और ज्ञानीजनोंके प्रति नम्र व्यवहारको विनय कहते हैं। आदि शब्दसे प्रतिभा, स्मृति, तेजस्विता, आरोग्य, बल, वीर्य, लज्जा, दक्षता आदि लिये जाते हैं ।।७०।।
. जबसे संसार है तभीसे मैथुन संज्ञा है। उससे होनेवाले समस्त दुःखोंके अनुभवसे जो उसके प्रति धिक्कारकी भावना रखनेमें अगुआ होता है उसे उसके निग्रहका उपाय बताते हैं
निर्विकल्प स्वात्मानभूतिसे होनेवाले सुखरूप रसको जलानेके लिए अग्निके तुल्य स्त्रीमें रमण करनेकी भावनासे आज तक मैंने इस संसारमें क्या क्या दुःख नहीं उठाये, मुझे धिक्कार है । इसलिए तत्काल ही स्त्रीमें रमण करनेकी भावनाके प्रकट होते ही उसका छेदन करनेवाले, स्वाभाविक ज्ञानानन्दके पुनः-पुनः प्राकट्यसे घनीभूत अपनी इस आत्मामें लीन होता हूँ। इस उपायसे उत्पत्तिके अभिमुख अवस्थामें ही कामका निग्रह करना चाहिए ॥७॥
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