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तृतीय अध्याय
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लोकस्तु
'सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशा मन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ [ ब्रह्मवैवर्त पु., कृष्ण जन्म खण्ड १३१ अ.] ३ चरितं-एकपुरुषाश्रिता कथा । अर्थाख्यानं-अर्थस्य परमार्थसतो विषयस्य आख्यानं प्रतिपादनं यत्र येन वा । बोधिः-अप्राप्तानां सम्यग्दर्शनादीनां प्राप्तिः। प्राप्तानां तु पर्यन्तप्रापणं समाधिः। धर्म्यशक्लध्याने वा। तौ दत्ते ( तत ) तच्छवणात्तत्प्राप्त्याद्यपपत्तेः। प्रथा-प्रकाशः। प्रथयेत्तरां-इतरान- ६ योगत्रयादतिशयेन प्रकाशयेत् तदर्थप्रयोगदृष्टान्ताधिकरणत्वात्तस्य ॥९॥ अथ करणानुयोगे प्रणिधत्ते
चतुर्गतियुगावर्तलोकालोकविभागवित् ।
हृदि प्रणयः करणानुयोगः करणातिगैः ॥१॥ चतुर्गतयः-नरकतिर्यग्मनुष्यदेवलक्षणाः । युगावर्तः--उत्सर्पण्यादिकालपरावर्तनम् । लोकःलोक्यन्ते जीवादयः षट्पदार्था यत्रासौ त्रिचत्वारिंशदधिकशतत्रयमात्ररज्जुपरिमित आकाशावकाशः। ततोऽन्यो १२ अलोको अनन्तानन्तमानावस्थितः शुद्धाकाशस्वरूपः । प्रणेयः-परिचयः । करणानुयोग:-लोकायनि-लोकविभाग-पञ्चसंग्रहादिलक्षणं शास्त्रम । करणातिगै:-जितेन्द्रियैः ॥१०॥
विशेषार्थ-पूर्व में हुए तिरेसठ शलाका पुरुषोंकी कथा जिस शास्त्र में कही गयी हो उसे पुराण कहते हैं । उसमें आठ बातोंका वर्णन होता है । कहा है-'लोक, देश, नगर, राज्य, तीर्थ, दान तथा अन्तरंग और बाह्य तप-ये आठ बातें पुराणमें कहनी चाहिए तथा गतियों और फलको भी कहना चाहिए।'
ब्रह्मवैवर्त पुराणमें कहा है-'जिसमें सर्ग-कारणसृष्टि, प्रतिसर्ग-कार्यसृष्टि, वंश, मन्वन्तर और वंशोंके चरित हों उसे पुराण कहते हैं। पुराणके ये पाँच लक्षण हैं।'
जिसमें एक पुरुषकी कथा होती है उसे चरित कहते हैं। पुराण और चरित विषयक शास्त्र प्रथमानुयोगमें आते हैं। प्रथम नाम देनेसे ही इसका महत्त्व स्पष्ट है। अन्य अनुयोगोंमें जो सिद्धान्त आचार आदि वर्णित हैं, उन सबके प्रयोगात्मक रूपसे दृष्टान्त प्रथमानुयोगमें ही मिलते हैं । इसलिए इसके अध्ययनकी विशेष रूपसे प्रेरणा की है। उसके अध्ययनसे हेय क्या है और उपादेय क्या है, इसका सम्यक् रीतिसे बोध होता है साथ ही बोधि और समाधिकी भी प्राप्ति होती है । बोधिका अर्थ है-अप्राप्त सम्यग्दर्शन आदिकी प्राप्ति । और प्राप्त होनेपर उन्हें उनकी चरम सीमातक पहुँचाना समाधि है अथवा समाधिका अर्थ है धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान ॥९॥
अब करणानुयोग सम्बन्धी उपयोगमें लगाते हैं
नारक, तिर्यच, मनुष्य, देवरूप चार गतियों; युग अर्थात् सुषमा-सुषमा आदि कालके विभागोंका परिवर्तन; तथा लोक और अलोकका विभाग जिसमें वर्णित है उसे करणानुयोग कहते हैं। जितेन्द्रिय पुरुषोंको इस करणानुयोगको हृदयमें धारण करना चाहिए ॥१०॥
विशेषार्थ-करणानयोग सम्बन्धी शास्त्रोंमें चार गति आदिका वर्णन होता है। नरकादि गति नामकर्मके उदयसे होनेवाली जीवकी पर्यायको गति कहते हैं। उत्सर्पिणीअवसर्पिणी कालोंके परिवर्तनको युगावर्त कहते हैं। जिसमें जीव आदि छहों पदार्थ देखे जाते हैं उसे लोक कहते हैं। अर्थात् तीन सौ तैतालीस राजु प्रमाण आकाशका प्रदेश लोक है। उसके चारों ओर अनन्तानन्त प्रमाण केवल आकाश अलोक है। इन सबका वर्णन
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