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धर्मामृत (अनगार )
मार्गणा यथा
'गतयः करणं कायो योगो वेदः क्रुधादयः । वेदनं संयमो दृष्टिर्लेश्या भव्यः सुदर्शनम् ॥ संज्ञी चाहारकः प्रोक्तास्ताश्चतुर्दश मार्गणाः । मिथ्याद्गादयो जीवा मार्ग्या यासु सदादिभिः ॥ [ अथ परमार्थतः 'प्रमत्तयोग एव हिंसा' इत्युपदिशति - रागाद्यसङ्गतः प्राणव्यपरोपेऽप्यहंसकः । स्यात्तदव्यपरोपेsपि हिंस्रो रागादिसंश्रितः ॥२३॥
है वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान है । समस्त मोहनीय कर्मका उपशम या क्षय होनेसे उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय नाम होते हैं। घातिकर्मोंका अत्यन्त क्षय होनेसे जिनके केवलज्ञान प्रकट हो जाता है उन्हें केवली कहते हैं। योगके होने और न होनेसे केवलीके दो भेद होते हैं— सयोगकेवली और अयोगकेवली । ये चौदह गुणस्थान मोक्षके लिए सीढ़ीके तुल्य हैं । जो इनसे अतीत हो जाते हैं वे सिद्ध जीव कहलाते हैं। चौदह गुणस्थानोंकी तरह चौदह मार्गणाएँ हैं - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ये चौदह मार्गणा हैं । इनमें जीवोंको खोजा जाता है इसलिए इन्हें मार्गणा कहते हैं ।
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] ॥२२॥
गति नामकर्मके उदयसे जीवकी जो विशेष चेष्टा होती है, जिसके निमित्तसे जीव चतुर्गतिमें जाता है उसे गति कहते हैं। जो अपने-अपने विषयको ग्रहण करने में स्वतन्त्र है वह इन्द्र है । आत्माकी प्रवृत्तिसे संचित पुद्गल पिण्डको काय कहते हैं जैसे पृथिवीकाय, जलका आदि । मन-वचन और कायसे युक्त जीवके जो वीर्यविशेष होता है उसे योग कहते हैं। आत्मामें उत्पन्न हुए मैथुन भावको वेद कहते हैं । जो कर्मरूपी खेतका कर्षण करती है उसे सुख-दुःखरूप फल देने योग्य बनाती है वह कषाय है । वस्तुको जाननेवाली शक्तिको ज्ञान कहते हैं । व्रतका धारण, समितिका पालन, कषायका निग्रह, मन-वचन-कायरूप दण्डोंका त्याग, इन्द्रियों का जय ये सब संयम हैं । पदार्थोंके सामान्य ग्रहणको दर्शन कहते हैं । कषायके उदयसे रंजित मन-वचन-काय की प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । जिस जीवमें सम्यग्दर्शन आदि गुण प्रकट होंगे उसे भव्य कहते हैं वही मोक्ष जाता है । तत्त्वार्थ के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। जो जीव मनकी सहायतासे उपदेश आदि ग्रहण करता है वह संज्ञी है, जिसके मन नहीं है वह असंज्ञी है। तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गल वर्गणाओंको जो ग्रहण करता है वह आहारक है । इस तरह इन मार्गणाओंमें सत् संख्या आदि आठ अनुयोगों के द्वारा मिध्यादृष्टि आदि जीवोंको जानकर उनकी रक्षा करनी चाहिए । अर्थात् अहिंसा धर्मके पालनके लिए जीवोंके विविध प्रकारोंका पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसके बिना उनका पूर्ण संरक्षण कर सकना शक्य नहीं होता ||२२||
आगे कहते हैं कि यद्यपि प्रमत्तयोगसे प्राणघातको हिंसा कहा है किन्तु परमार्थ से प्रमत्तयोग ही हिंसा है
प्राणोंका घात करनेपर भी यदि व्यक्ति राग-द्वेष और मोहरूप परिणत नहीं है तो वह अहिंसक है । और प्राणोंका घात न होनेपर भी यदि वह राग आदिसे युक्त है तो हिंसक है ||२३||
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