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धर्मामृत (अनगार )
ननु यद्येवं तर्हि प्रमत्तयोगे हि सत्येवास्तु किं प्राणव्यपरोपणोपदेशेन इति चेन्न तत्रापि भावलक्षणप्राणव्यपरोपणसद्भावात् । एतदेव समर्थयमानः प्राह
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प्राक् - परवधात्पूर्वम् । आतङ्कतायनात् – दुष्कर्मनिर्मापकत्वेन स्वस्य सद्यः पुरस्ताच्च व्याकुलत्व९ लक्षणदुःखसंतननात् । परः - हन्तुमिष्टः प्राणी । अनु – पश्चात्, आत्महंसनादूर्ध्वमित्यर्थः । तदुक्तम्'स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् ।
पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद् स्याद्वा न वा वधः ॥' [ सर्वार्थसि. ७।१३ में उद्धृत ] रागाद्या हि - रागद्वेषमोहा एव न परप्राणवधः । तेषामेव हि दुःखैककारणकर्मबन्धनिमित्तत्वेनारित्वात् । तथा चोक्तम्-
प्रमत्तो हि हिनस्ति स्वं प्रागात्माऽऽतङ्कतायनात् । परोनु स्त्रियां मा वा रागाद्या ह्यरयोऽङ्गिनः ॥२४॥ प्रमत्तः - पञ्चदशप्रमादान्यतमपरिणतः । तथा चोक्तम्'विकथाक्षकषायाणां निद्रायाः प्रणयस्य च । अन्यासाभिरतो जन्तुः प्रमत्तः परिकीर्तितः ॥ ' [
'न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बन्धकृत् ।
९० ] में कहा है- 'अहिंसा भी स्वयं होती है और हिंसा भी स्वयं होती है । दोनों ही पराधीन नहीं हैं। जो प्रमादहीन है वह अहिंसक है और जो प्रमादसे युक्त है वह सदैव हिंसक है ।' उक्त कथनपर से यह शंका हो सकती है कि यदि प्रमत्तयोगका ही नाम हिंसा है तो हिंसाका लक्षण केवल प्रमत्तयोग होना चाहिए, उसके साथ 'प्राणघात' लगाना व्यर्थ है । इसका समाधान करते हैं
जो जीव पन्द्रह प्रमादों में से किसी एक प्रमादसे भी युक्त है वह परका घात करने से पहले तत्काल अपने दुष्कर्मोंका संचय करनेके कारण और आगे व्याकुलतारूप दुःखको बढ़ानेसे अपने ही भावप्राणोंका घात करता है । उसके पश्चात् जिसको मारनेका विचार किया था वह प्राणी मरे या न मरे । क्योंकि राग-द्वेष-मोह ही प्राणी के शत्रु हैं ||२४||
विशेषार्थ -जो दूसरे को मारनेका या उसका अनिष्ट करनेका विचार करता है सबसे प्रथम इस दुर्विचारके द्वारा वह अपने भावप्राणोंका घात करता है। क्योंकि इस दुर्विचारके द्वारा ही उसके अशुभ कर्मोंका बन्ध होता है और इस बन्धके कारण आगे उसे उसका दुःखरूप फल भोगना पड़ता है । कहा भी है- 'प्रमादी आत्मा पहले तो स्वयं अपने ही द्वारा अपना घात करता है । दूसरे प्राणियोंका घात पीछे हो या न हो ।'
अपने से अपना घात कैसे करता है तो इसका उत्तर है कि प्राणीके असली शत्रु तो रागद्वेष-मोह हैं क्योंकि दुःखका एकमात्र कारण है कर्म और उस कर्मबन्ध में निमित्त हैं रागद्वेष, मोह | अतः वे आत्मा के अपकार करनेवाले हैं। कहा है- 'कर्मबन्धका कारण कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा लोक नहीं है । हलन चलनरूप मन-वचन-कायकी क्रियारूप योग भी उसका कारण नहीं है । अनेक प्रकारकी इन्द्रियाँ भी बन्धके कारण नहीं हैं, न चेतन और अचेतनका
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१. 'स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसक ॥'
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