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चतुर्थं अध्याय
'विसवेयणरत्तक्खयभयसत्यग्गहणसंकिले से हि ।
आहारोस्सासाणं निरोहओ छिज्जदे आऊ ॥' [ गो. कर्म. ५७ ]
क्ष्मादि - क्षितिर्भवति वृक्षादिकम् । इति प्रकारार्थतो नास्ति सुराणामकाले मृत्युरित्यावेद्यम् ||३८|| श्रेधा - मनोवाक्कायैः ॥ ३९ ॥
कषाय और योगरूप आत्मपरिणाम है वही त्याज्य है, असत् वचनके त्यागका उपदेश अनुपयोगी है । इसके उत्तर में कहा है- कृत कारित अनुमतके भेदसे असंयम तीन प्रकारका है । 'मैं इस मनुष्यको इस असंयममें प्रवृत्त करता हूँ अथवा इस वचनके द्वारा असंयममें प्रवृत्त हुए मनुष्य की अनुमोदना करता हूँ' इस प्रकारके अभिप्रायके बिना ऐसे वचन नहीं निकल सकते। अतः उस वचनमें कारणभूत अभिप्राय आत्मपरिणामरूप होता है और वह कर्मबन्धमें निमित्त होता है इसलिए उसे त्यागना चाहिए। उसके त्यागनेपर उसका कार्य वचन भी छूट जाता है; क्योंकि कारणके अभाव में कार्य नहीं होता । अतः आचार्यने इस क्रम से असत् वचनका त्याग कहा है । अप्रमादी होकर सभी प्रकारके असत् वचनोंका त्याग करना चाहिए; क्योंकि संयम धारण करके भी और उसका अच्छी तरह पालन करते हुए भी मुनि भाषादोष उत्पन्न हुए कर्मसे लिप्त होता है । यहाँ 'भाषा' से वचनयोग नामक आत्मपरिणाम लेना चाहिए । अर्थात् दुष्ट वचनयोगके निमित्तसे उत्पन्न हुए कर्म से आत्मा लिप्त होता है । इस असत्य वचनके चार भेद है— सत्का निषेध करना प्रथम असत्य है जैसे यह कहना कि मनुष्यकी अकालमें मृत्यु नहीं होती। यहाँ कालसे मतलब है आयुका स्थितिकाल । उस कालसे भिन्न काल अकाल है । यद्यपि भोगभूमिके मनुष्योंका अकालमें मरण नहीं होता किन्तु जो चरमशरीरी होते हैं उनके सिवाय शेष कर्मभूमिके मनुष्योंका अकालमरण आगममें कहा है । यथा - 'उपपाद जन्मवाले देव नारकी, चरमशरीरी मनुष्य और असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमिया जीवोंकी आयुका विष शस्त्रादिसे घात नहीं होता।' इससे सिद्ध है कि अकाल में भी विषादि के द्वारा मरण हो सकता है। कहा भी है'विष, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्राघात, संक्लेश और आहार तथा श्वासके रुकने से आयु छीज जाती है ।' अस्तु ।
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असत्का उद्भावन - जो नहीं है उसे 'है' कहना दूसरा असत्य है । जैसे देवोंकी अकाल-मृत्यु कहना या जगत्को ईश्वरका बनाया हुआ कहना | गायको घोड़ा कहना तीसरा विपरीत नामक असत्य है । चतुर्थ भेद निन्द्य है । भ. आ. में भी असत्यके चार भेद कहे हैं और उन्हींका अनुसरण इस ग्रन्थके रचयिता पं. आशाधरने किया है। किन्तु तीसरे असत्य का नाम विपरीत और चतुर्थ असत्यका नाम निन्द्य न भ. आ. में है और न पुरुषार्थ. में । पुरुषार्थ. में (९२-९४) आचार्य अमृतचन्द्रने इन असत्योंका स्वरूप जिस रूप में कहा है वह जैन दार्शनिक शैलीके अनुरूप है। तदनुसारे 'स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्वभावसे विद्यमान
१. स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥ असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनुतमस्मिन्यथास्ति घटः ॥
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