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धर्मामृत ( अनगार) 'जीवस्य हिंसा न भवेन्नित्यस्यापरिणामिनः ।
क्षणिकस्य स्वयं नाशात्कथं हिंसोपपद्यताम् ॥ [ ] असुभृतः-प्राणिनः । अकार्य-न हिंस्यात् सर्वभूतानीति शास्त्रे निषिद्धत्वान्न कर्तव्यं नित्यादिपक्षे तुक्तनीत्या कर्तुमशक्यं च । कथं-केन प्रकारेण मनोवाक्कायकृतकारितानमननानां मध्ये न केनापि प्रकारेणेत्यर्थः । तथा चाहुः
'षड्जीवनिकायवधं यावज्जीवं मनोवचःकायैः।।
कृतकारितानुमननैरुपयुक्तः परिहर सदा त्वम् ॥ [ ]॥२९॥ अथ प्राणातिपातादिहामुत्र च घोरदुर्निवारमपायं दर्शयित्वा ततोऽत्यन्तं शिवाथिनो निवृत्तिमुपदिशति
कुष्ठप्रष्ठैः करिष्यन्नपि कथमपि यं कर्तुमारभ्य चाप्त
भ्रंशोऽपि प्रायशोऽत्राप्यनुपरममुपद्रूयतेऽतीवरौत्रैः। यं चक्राणोऽथ कुर्वन् विधुरमधरधीरेति यत्तत्कथास्तां
कस्तं प्राणातिपातं स्पृशति शुभमतिः सोदरं दुर्गतीनाम् ॥३०॥ कुष्ठप्रष्ठैः-कुष्ठजलोदरभगन्दरादिमहारोगैः । करिष्यन्-कर्तुमिच्छन् । आप्तभ्रंश:-प्राप्ततत्करणान्तरायः । अत्रापि-इह लोकेऽपि । अनुपरम- अनवरतम् । उपद्रूयते-पीड्यते । चक्राण:१५ कृतवान् ॥३०॥
___ इसलिए जो अहिंसारूप परमधर्मकी सिद्धिके अभिलाषी हैं उन्हें आत्माको शरीरसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानना चाहिए। इसी तरह सर्वथा नित्य आत्माकी तरह सर्वथा क्षणिक आत्माकी भी हिंसा सम्भव नहीं है क्योंकि वह तो क्षणिक होनेसे स्वयं ही नष्ट हो जाती है। कहा है-'सर्वथा अपरिणामी नित्य जीवकी तो हिंसा नहीं की जा सकती, और क्षणिक जीवका स्वयं ही नाश हो जाता है । तब कैसे हिंसा बन सकती है।' . इसलिए जीवको कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य माननेपर ही हिंसा सम्भव है । अतः अहिंसारूप धर्मका पालन करनेके इच्छुक मुमुक्षुओंको द्रव्यरूपसे नित्य और पर्यायरूपसे अनित्य जीव स्वीकार करना चाहिए। ऐसा जीव ही प्रमाणसे सिद्ध होता है। इस प्रकार जीवका स्वरूप निश्चित रूपसे जानकर जीवहिंसाका त्याग करना चाहिए । कहा भी है-'तू सदा मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे छह कायके जीवोंकी हिंसा जीवनपर्यन्तके लिए छोड़ दे।' ॥२९॥
प्राणोंके घातसे इस लोक और परलोकमें ऐसी भयानक आपत्तियाँ आती हैं जिनको दूर कर सकना शक्य नहीं है इसलिए उससे मुमुक्षुको अत्यन्त दूर रहने का उपदेश देते हैं
जिस हिंसाको करनेकी इच्छा करनेवाला भी इसी जन्ममें अत्यन्त भयानक कुष्ठ आदि रोगोंसे निरन्तर पीड़ित रहता है। केवल उसे करनेकी इच्छा करनेवाला ही पीड़ित नहीं होता किन्तु जो आरम्भ करके किसी भी कारणसे उसमें बाधा आ जानेके कारण नहीं कर पाता वह भी इसी जन्ममें प्रायः भयंकर रोगोंसे पीड़ित होता है । जो उस हिंसाको कर चुका है अथवा कर रहा है वह कुबुद्धि जिस कष्टको भोगता है उसकी कथा तो कही नहीं जा सकती। अपने कल्याणका इच्छुक कौन मनुष्य दुर्गतियोंकी सगी बहन हिंसाके पास जाना भी पसन्द करेगा ॥३०॥
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