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चतुर्थ अध्याय
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त्रिंशत् । तथैव वाचापि ते षट्त्रिंशत् । तथा मनसाऽपि ते षट्त्रिंशदेवेति सर्वे मोलिता अष्टोत्तरशत जीवाधिकरणास्रवभेदा हिंसाकारणानि स्युस्तत्परिणतश्च हिंसक इत्युच्यते आत्मनो भावप्राणानां परस्य च द्रव्यभावप्राणानां वियोजकत्वात् । तथा चोक्तम्
'रत्तो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पउंजए पओगं ।
हिंसा वि तत्थ जायदि तम्हा सो हिंसओ होइ ॥ [ भ. आरा. ८०२ ] ॥२७॥ अथ भावसानिमित्तभूतपरद्रव्यनिवृत्ति परिणाम विशुद्धयर्थमुपदेष्टुमाचष्टे - हिंसा यद्यपि पुंसः स्यान्न स्वल्पाऽप्यन्यवस्तुतः । तथापि हिसायतनाद्विरमेद्भावशुद्धये ॥२८॥
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अन्यवस्तुतः --- परद्रव्यात् । हिंसायतनात् - भावहिंसानिमित्तान्मित्रशत्रुप्रभृतेः । भावशुद्धयेभावस्य आत्मपरिणामस्यात्मनो मनसो वा । शुद्धिः – मोहोदय संपाद्य मानरागद्वेष कालुष्योच्छेदस्तदर्थम् । उक्तं च
'स्वल्पापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः ।
हिंसायतननिवृत्ति: परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥' [ पुरुषार्थसि. ४९ ]
परद्रव्य भावहिंसा में निमित्त होता है । इसलिए परिणामोंकी विशुद्धिके लिए परद्रव्यके त्यागका उपदेश देते हैं
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तथा यथा जीवपरिणामो हिसोपकरणभूतो जीवाधिकरणात्रवभेदोऽष्टोत्तरशतसंख्यं तथाऽजीवपर्यायोऽप्यजीवाधिकरणं चतुर्भेदं स्यात्ततस्तद्वत्ततोऽपि भावशुद्धयर्थं निवर्तेतेत्यपि 'हिंसायतनाद्विरमेत' इत्यनेनैव सूचितं १५ नेतव्यम् । तद्यथा — निर्वर्तनानिक्षेप संयोग निसर्गाद् द्विचतुद्वित्रिभेदाः क्रमादजीवाधिकरणमिष्यते । तत्र हिंसोपकरणतया निर्वर्त्यत इति निर्वर्तना । दुःप्रयुक्तो देहः सच्छिद्राणि चोपकरणानीति द्विविधा । तया सहसाऽनाभोगदुप्रमृष्टा प्रत्यवेक्षितभेदाच्चतुर्द्धा निक्षेपः । तत्र पुस्तकाद्युपकरणशरीरतन्मलानि भयादिना शीघ्रं निक्षिप्यमाणानि षट्जीवबाधाधिकरणत्वात्सहसा निक्षेपः । असत्यामपि त्वरायां जीवाः सन्तीति न सन्तीति वा निरूपणामन्तरेण निक्षिप्यमाणमुपकरणादिकमनाभोगनिक्षेप: । य ( त ) देव दुःप्रमृष्टं निक्षिप्यमाणं दुःप्रमृष्टो निक्षेपः ।
यद्यपि परवस्तुके सम्बन्धसे जीवको थोड़ी-सी भी हिंसाका दोष नहीं लगता । तथापि आत्माके परिणामोंकी बिशुद्धिके लिए भावहिंसा के निमित्त मित्र शत्रु वगैरह से दूर रहना चाहिए ||२८||
विशेषार्थ - हिंसा के दो साधन हैं-जीव और अजीव । अतः जैसे जीवके परिणाम, जिनकी संख्या १०८ है, हिंसाके प्रधान साधन हैं वैसे ही अजीवकी चार अवस्थाएँ भी हिंसाकी साधन हैं । अतः परिणामोंकी विशुद्धिके लिए उनका भी त्याग आवश्यक है । यह बात श्लोक के 'हिंसायतनाद्विरमेत्' 'हिंसा के निमित्तोंसे दूर रहना चाहिए' पदसे सूचित होती है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- अजीवाधिकरणके भेद हैं निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग | हिंसाके उपकरण रूपसे रचना करने अथवा बनानेको निर्वर्तना कहते हैं ।
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सब मिलकर १०८ भेद होते हैं । कोई भी हिंसा सम्बन्धी कार्य इन १०८ प्रकारके अन्तर्गत ही आता है । और जो इन प्रकारोंमें से किसी भी एक प्रकारसे सम्बद्ध होता है वह हिंसक होता है। क्योंकि वह अपने भावप्राणोंका और दूसरेके द्रव्यप्राण और भावप्राणोंका घातक है । कहा भी है- 'रागी, द्वेषी और मोही व्यक्ति जो कुछ करता है उसमें हिंसा भी होती है। और इसलिए वह हिंसक होता है ।'
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