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धर्मामृत ( अनगार ) तथा पृथिव्यादयः पञ्चापि साधारणाः पृथिव्यादिकायाः पृथिव्यादिकायिकाः पृथिव्यादिजीवाश्च भवन्ति । श्लोक:
'क्ष्माद्याः साधारणाः क्ष्मादिकाया जीवोज्झिताः श्रिताः।
जीवैस्तत्कायिकाः श्रेयास्तज्जीवा विग्रहेतिगैः ॥' [ तत्रान्त्यद्वयेऽपि संयतै रक्ष्याः । तदेहाकारा यथा
'समानास्ते मसूराम्भो बिन्दुसूचीव्रजध्वजैः।
धराम्भोऽग्निमरुत्कायाः क्रमाच्चित्रास्तस्त्रसाः॥ [ अमि. पं. सं. १।१५४ ] संसारिणः पुनद्वैधा प्रतिष्ठितेतरभेदात् । तद्यथा
'प्रत्येककायिका देवाः श्वाभ्राः केवलिनोयम् । आहारकधरा तोयपावकानिलकायिकाः॥ निगोतैर्बादरैः सूक्ष्मरेते सन्त्यप्रतिष्ठिताः ।
पञ्चाक्षा विकला वृक्षा जीवाः शेषाः प्रतिष्ठिताः॥' [अमित. पं. सं. १११६२-१६३] जो जीव तीनों कालोंमें त्रसपर्याय प्राप्त करते हैं वे चारों गतिमें विहार करनेवाले अनित्यनिगोद जीव हैं।
श्वेताम्बर परम्परामें नित्यनिगोद शब्द राजेन्द्र अभिधानकोश और पाइअसद्द महण्णवमें भी नहीं मिला। निगोदके दो भेद किये हैं-निगोद और निगोद जीव । सेनप्रश्नके तीसरे उल्लासमें प्रश्न ३४६ में पूछा है कि कुछ निगोद जीव कोंके लघु होनेपर व्यवहार राशिमें आते हैं उनके कर्मों के लघु होनेका वहाँ क्या कारण है ? उत्तरमें कहा है कि भव्यत्व का परिपाक आदि उनके कर्मोंके लघु होने में कारण है। इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परामें भी नित्यनिगोदसे जीवोंका निकास मान्य है । अस्तु,
पाँचों पृथिवीकायिक आदिके चार-चार भेद कहे हैं-'पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक, पृथिवीजीव । पहला पृथिवी भेद सामान्य है जो उत्तरके तीनों भेदों में पाया जाता है। पृथिवीकायिक जीवके द्वारा छोड़े गये शरीरको पृथिवीकाय कहते हैं। जैसे मरे हुए मनुष्यका शरीर । जीव विशिष्ट पृथिवी पृथिवीकायिक है। जिस जीवके पृथिवीकाय नाम कर्मका उदय है किन्तु विग्रहगतिमें स्थित है, पृथिवीकायमें जन्म लेने जा रहा है किन्त जबतक वह पृथिवीको कायके रूपमें ग्रहण नहीं करता तबतक उसे पृथिवी जीव कहते हैं। इनमें से अन्तिम दोकी रक्षा संयमियोंको करनी चाहिए।
इन जीवोंके शरीरका आकार इस प्रकार कहा है-'पृथिवी आदि चारोंका शरीर क्रमसे मसूरके समान, जलकी बदके समान, सूइयोंके समूहके समान और ध्वजाके समान होता है। वनस्पतिकाय और सकायके जीवोंके शरीरका आकार अनेक प्रकारका होता है।'
संसारी जीव दो प्रकारके होते हैं-सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित । यथा-देव, नारकी, सयोग-केवली, अयोगकेवली, आहारकशरीर, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक, बादर और सूक्ष्म निगोदजीवोंसे अप्रतिष्ठित है अर्थात् इनके शरीरोंमें निगोदजीवोंका वास नहीं होता। शेष पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और वनस्पतिकायिक जीवोंके शरीर १. पुढवी पुढवीकायो पुढवीकाइय पुढवीजीवो य।
साहारणोपमुक्को सरीरगहिदो भवंतरिदो ॥ -सर्वार्थ. २०१३ में उद्धृत ।
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