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धर्मामृत ( अनगार ) उक्तं च-'मतिपूर्व श्रुतं दक्षरुपचारान्मतिमंता ।
मतिपूर्वं ततः सर्वं श्रुतं ज्ञेयं विचक्षणैः ।।' [ अमित. पं. सं. ११२१८ ] एतच्च भावश्रुतमित्युच्यते ज्ञानात्मकत्वात् । एतन्निमित्तं तु वचनं द्रव्यश्रुतमित्याहुः ॥५॥ यद्येवं द्वेधा स्थितं श्रुतं तहि तभेदाः सन्ति न सन्ति वा ? सन्ति चेत् तदुच्यतामित्याह
तद्धावतो विशतिधा पर्यायादिविकल्पतः।
द्रव्यतोऽङ्गप्रविष्टाङ्गबाह्यभेदाद द्विधा स्थितम् ॥६॥ पर्यायः-अपर्याप्तसूक्ष्मनिगोतस्य प्रथमसमये जातस्य प्रवृत्तं सर्वजघन्यं ज्ञानं तद्धि लब्ध्यक्षरापराभिधानमक्षरश्रुतानन्तभागपरिमाणत्वात् सर्वविज्ञानेभ्यो जघन्यं नित्योद्घाटितं निरावरणं, न हि तावतस्तस्य कदाचनाऽप्यभावो भवति आत्मनोऽप्यभावप्रसङ्गात् उपयोगलक्षणत्वात्तस्य । तदुक्तम्
है कि यह पकानेके काम आती है। यह श्रुतज्ञान यद्यपि श्रुतज्ञानपूर्वक होता है फिर भी उसे उपचारसे मतिपूर्वक कहते हैं। कहा भी है
'ज्ञानियोंने मतिपूर्वक होनेवाले श्रुतज्ञानको उपचारसे मतिज्ञान माना है। अतः साक्षात् मतिपूर्वक या परम्परासे मतिपूर्वक होनेवाले सभी श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होते हैं ऐसा विद्वानोंको जानना चाहिए।'
तथा श्रुतके स्वरूप और भेदके विषयमें कहा है___ मतिपूर्वक होनेवाले अर्थसे अर्थान्तरके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। वह शब्दजन्य और लिंगजन्य होता है। उसके अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट दो भेद हैं। अंगबाह्यके अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्टके बारह भेद हैं।
श्रुत शब्द 'श्रु' धातुसे बनता है जिसका अर्थ सुनना है । श्रुत ज्ञानरूप भी होता है और शब्दरूप भी। जिस ज्ञानके होनेपर वक्ता शब्दका उच्चारण करता है वक्ताका वह ज्ञान और श्रोताको शब्द सुननेके बाद होनेवाला ज्ञान भावश्रुत है अर्थात् ज्ञानरूप श्रुत है। और उसमें निमित्त वचन द्रव्यश्रुत है । भावश्रुत या ज्ञानरूप श्रुतका फल अपने विवादोंको दूर करना है अर्थात् उससे ज्ञाता अपने सन्देहादि दूर करता है इसलिए वह स्वार्थ कहलाता है। और शब्द प्रयोगरूप द्रव्यश्रुतका फल दूसरे श्रोताओंके सन्देहोंको दूर करना है इसलिए उसे परार्थ कहते हैं । इस तरह श्रुतज्ञान ही केवल एक ऐसा ज्ञान है जो स्वार्थ भी है और परार्थ भी है । शेष चारों ज्ञान स्वार्थ ही हैं क्योंकि शब्द प्रयोगके बिना दूसरोंका सन्देह दूर नहीं किया जाता। और शब्द प्रयोगका कारणभूत ज्ञान तथा शब्द प्रयोगसे होनेवाला ज्ञान दोनों श्रुतज्ञान हैं ।।५।।
आगे श्रुतके इन दोनों भेदोंके भी भेद कहते हैं
भावश्रत पर्याय, पर्याय समास आदिके भेदसे बीस प्रकारका है। और द्रव्यश्रुत अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के भेदसे दो प्रकारका है ॥६॥
_ विशेषार्थ-आर्गममें भावश्रुतके बीस भेद इस प्रकार कहे हैं-पर्याय, पर्यायसमास, १. अर्थादर्थान्तरज्ञानं मतिपूर्वं श्रुतं भवेत् । शाब्दं तल्लिङ्गजं चात्र द्वयनेकद्विषड्भेदगम् ।। [
] २. पज्जय-अक्खर-पद-संघादय-पडिवत्ति-जोगदाराई।
पाहुड पाहुड वत्थू पुव्वसमासा य बोधव्वा ॥-षट् खं., पु. १२, पृ. ३६०।
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