________________
३
१२
१९८
धर्मामृत (अनगार )
1
'स्याकार श्रीवास वश्येनयोर्घः पश्यन्तीत्थं चेत्प्रमाणेन चापि । पश्यन्त्येव प्रस्फुटानन्तधर्मं स्वात्मद्रव्यं शुद्धचिन्मात्रमन्तः ॥ [ शब्दब्रह्म - श्रुतज्ञानम् । आञ्जसं - पारमार्थिकं स्वात्माभिमुखसंवित्तिरूपमित्यर्थः । उक्तं चगहियं तं सुअणाणा पच्छा संवेयणेण भावेज्जो ।
अवलंब सो मुज्झइ अप्पसब्भावे ||
लक्खणदो लिक्खं अणुहवमाणस्स जं हवे सोक्खं ।
वित्त भणिया सयलवियप्पाण णिडहणी ॥' [द्र. स्व. प्र. नयं. ३४९, ३५१] ॥१॥ आत्मनीनाः - आत्माभिहिताः ॥ १॥ .
अथ श्रुताराधनायाः परम्परया केवलज्ञानहेतुत्वमुपदर्शयन् भूयस्तत्रैव प्रोत्साहयति - कैवल्यमेव मुक्त्यङ्गं स्वानुभूत्यैव तद्भवेत् ।
सा च श्रुतैकसंस्कारमनसाऽतः श्रुतं भजेत् ॥२॥ स्पष्टम् ||२||
श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माको ग्रहण करके पीछे संवेदनके द्वारा उसका ध्यान करना चाहिए। जो श्रुतका अवलम्बन नहीं लेता वह आत्माके सद्भाव में मूढ़ रहता है । लक्षणके द्वारा अपने लक्ष्यका अनुभव करते हुए जो सुख होता है उसे संवित्ति कहते हैं । वह समस्त विकल्पों को नष्ट करने वाली है । यहाँ लक्ष्य आत्मा है, वह आत्मा अपने ज्ञानदर्शन आदि गुणोंके साथ ध्यान करने योग्य है । उस आत्माका लक्षण चेतना या उपलब्धि है । वह चेतना दर्शन और ज्ञान रूप है ।'
श्रुतज्ञानकी भावनाके अवलम्बनसे ही आत्माके शुद्ध स्वरूपको देखा जा सकता है । कहा भी है
'जो इस प्रकार स्याद्वादरूपी रालसे सम्बद्ध नयोंके द्वारा तथा प्रमाणसे भी वस्तुस्वरूपको देखते हैं वे अनन्तधर्मोसे समन्वित शुद्ध चिन्मात्र स्वात्मद्रव्यको अन्तस्तलमें अवश्य देखते हैं'। अतः स्वात्मसंवेदनरूप श्रुतज्ञान पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक है । उसके बिना आत्मदर्शन नहीं हो सकता और आत्मदर्शनके बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती । अतः सम्यग्दर्शनकी आराधनाके पश्चात् सम्यग्ज्ञानकी आराधना करनी ही चाहिए |' ॥१॥
श्रुतकी आराधना परम्परासे केवलज्ञानमें हेतु है यह बतलाते हुए पुनः श्रुतकी आराधना में उत्साहित करते हैं
केवलज्ञान ही मोक्षका साक्षात् कारण है । और वह केवलज्ञान स्वानुभूति से ही होता है । तथा वह स्वानुभूति श्रुतज्ञानकी उत्कृष्ट भावना में लीन मनसे होती है इसलिए श्रुतकी आराधना करनी चाहिए || २ ||
विशेषार्थ - मोक्षमार्ग में केवलज्ञानका जितना महत्त्व है उससे कम महत्त्व श्रुतज्ञानका नहीं है । आगममें कहा है कि 'द्रव्यश्रुतसे भावश्रुत होता है और भावश्रुतसे भेदज्ञान होता है । भेदज्ञानसे स्वानुभूति होती है और स्वानुभूतिसे केवलज्ञान होता है' । आशय यह है कि वस्तुके स्वरूपका निश्चय जीव और कर्मका स्वरूप बतलानेवाले शास्त्रोंके अभ्यास से होता है । जो पुरुष आगम में प्रतिपादित गुणस्थान, जीवसमास आदि बीस प्ररूपणाओंको नहीं जानता और न अध्यात्म में प्रतिपादित आत्मा और शरीरादिके भेदको जानता है वह पुरुष
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org