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धर्मामृत ( अनगार) आमिषं-ग्रासो विषयो वा । तथा चोक्तम्'बह्वपायमिदं राज्यं त्याज्यमेव मनस्विनाम् ।
त्राः ससोदर्याः वैरायन्ते निरन्तरम् ॥' [ दोषेषु-ब्रह्महत्यादिषु । अनुरक्तया । ब्रह्मघ्नोऽपि धनी धनलोभाद् वृद्धरप्याश्रीयते । तदुक्तम्
'वयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये च वृद्धा बहुश्रुताः।
सर्वे ते धनवृद्धस्य द्वारे तिष्ठन्ति किङ्कराः ।।' [ स्वभ्यस्व-आत्मानमुत्कृष्टं संभावय त्वम् । अन्न-हे भ्रातः । आस्वित्यादि-अयमर्थ:-क्षणिकतया पुरुषान्तरं गच्छन्त्या लक्षम्या यदि सद्योऽन्धत्वान्न प्रच्याव्यसे अन्यथा पुरुषान्तरं मम लक्ष्मीरेषा गच्छतीति दुःसहदुःखं प्राप्नोषि न चैवं सर्वस्यापि प्रायेण लक्ष्मीसमागमे पश्यतोऽप्यदर्शनस्य तद्विगमे च दर्शनस्योपलम्भात् । यल्लोकोक्तिः
संपय पडलहिं लोयणइं बंभजि छाइज्जति । ते दालिदसलाइयइं अंजिय णिम्मल होंति ॥ [
1 ॥२०॥ अथ शिल्पादिज्ञानिनां मदावेशमनशोचतिशिल्पं वै मदुपक्रमं जडधियोऽप्याशु प्रसादेन मे,
विश्वं शासति लोकवेदसमयाचारेष्वहं दृङ् नृणाम् । राज्ञां कोऽहमिवावधानकुतुकामोदैः सदस्यां मनः,
कर्षत्येवमहो महोऽपि भवति प्रायोऽद्य पुंसां तमः ॥११॥ विशेषार्थ-लक्ष्मीकी प्राप्तिमें पौरुषसे अधिक दैवका हाथ होता है फिर लक्ष्मी पाकर मनुष्य आपत्तियोंका शिकार बन जाता है। कहा है
__ “यह राज्य बहुत-सी बुराइयोंसे भरा है, यह मनस्वी पुरुषोंके छोड़ देने योग्य है । जिसमें सहोदर भाई और पुत्र सदा वैरीकी तरह व्यवहार करते हैं।" लक्ष्मी पाकर मनुष्य अपने निकट बन्धुओंका भी विश्वास नहीं करता। लक्ष्मीके लोभसे धनवान्के दोष भी गुण कहलाते हैं । कहा भी है-'जो अवस्था में बड़े हैं, तपमें बड़े हैं और जो बहुश्रुत वृद्धजन हैं वे सब लक्ष्मीमें बड़े पुरुषके द्वार पर आज्ञाकारी सेवककी तरह खड़े रहते हैं।'
ऐसी लक्ष्मीको प्राप्त करनेवालेको ग्रन्थकार उपदेश देते हैं कि लक्ष्मीसे अपनेको बड़ा मान, लक्ष्मीको बड़ा मत मान क्योंकि लक्ष्मी तो चंचल है। यह एक पुरुषके पास सदा नहीं रहती क्योंकि इसे पाकर मनुष्य अन्धा हो जाता है; उसे हिताहितका विचार नहीं रहता। अतः जब लक्ष्मी उसे छोड़कर दूसरेके पास जाती है तो मनुष्य बहुत दुखी होता है। प्रायः धन पानेपर मनुष्य देखते हुए भी नहीं देखता और उसके जाने पर उसकी आँखें खुलती हैं । एक लोकोक्ति है-विधि सम्पत्तिरूपी पटलसे मनुष्योंके जिन नेत्रोंको ढाँक देता है वे दारिद्ररूपी शलाकासे अंजन आँजनेपर निर्मल हो जाते हैं-पुनः खुल जाते हैं ॥१०॥
शिल्प आदि कलाके ज्ञाताओंके मदावेशपर दुःख प्रकट करते हैं
अमुक हस्तकलाका आविष्कार मैंने ही किया था, उसे देखकर ही दूसरोंने उसकी नकल की है । मन्दबुद्धि लोग भी मेरे अनुग्रहसे शीघ्र ही चराचर जगत्का स्वरूप दूसरोंको बतलाने लगते हैं अर्थात् लोककी स्थितिविषयक ज्ञान कराने में मैं ही गुरु हूँ। लोक, वेद और नाना मतों के आचारोंके विषयमें मैं मनुष्योंका नेत्र हूँ, अर्थात् लोक आदिका आचार स्पष्ट रूपसे दिखलाने में मैं ही प्रवीण हूँ। राजसभामें अवधानरूप कौतुकोंके आनन्दके द्वारा
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