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धर्मामृत ( अनगार) अथ आकांक्षानिरोधेऽत्यन्तं यत्नमुपदिशतिपुण्योदयकनियतोऽभ्युदयोऽत्र जन्तोः,
प्रेत्याप्यतश्च सुखमप्यभिमानमात्रम् । तन्नात्र पौरुषतषे परवागुपेक्षा
पक्षो ह्यनन्तमतिवन्मतिमानुपेयात् ॥७॥ प्रेत्यापि-परलोकेऽपि । अत्र-अभ्युदयतज्जनितसुखयोः। परवाच:-सर्वथैकान्तवादिमतानि । उपेयात् ।।७८॥ अथ विचिकित्सातिचारं लक्षयति
कोपादितो जुगुप्सा धर्माङ्गे याऽशुचौ स्वतोऽङ्गादौ ।
विचिकित्सा रत्नत्रयमाहात्म्यारुचितया दृशि मलः सा ७९॥ अशुचौ-अपवित्रेऽरम्ये च ॥७९॥ अथ महतां स्वदेहे निर्विचिकित्सितामाहात्म्यमाहयद्दोषधातुमलमूलमपायमूल
मङ्गं निरङ्गमहिमस्पृहया वसन्तः। सन्तो न जातु विचिकित्सितमारमन्ते
संविद्रते हृतमले तदिमे खलु स्वे ॥८॥ निरङ्गाः-सिद्धाः । संवित्ति लभन्ते-हृतमले-विलीनकर्ममालिन्ये ।।८०॥ आगे आकांक्षाको रोकनेके लिए अधिक प्रयत्न करनेका उपदेश करते हैं
इस लोक और परलोक में भी जीवका अभ्युदय एकमात्र पुण्योदयके अधीन है, पुण्यका उदय होनेपर ही होता है उसके अभावमें नहीं होता। और इस अभ्युदयसे सुख भी 'मैं सुखी हूँ' इस प्रकारकी कल्पना मात्र होता है। इसलिए सर्वथा एकान्तवादी मतोंके प्रति उपेक्षाका भाव रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुषको श्रेष्ठीपुत्री अनन्तमतीकी तरह अभ्युदयके साधनोंमें पौरुष प्रयत्न नहीं करना चाहिए तथा उससे होनेवाले सुखमें तृष्णा नहीं करना चाहिए ॥७॥ __ आगे विचिकित्सा नामक अतीचारका स्वरूप कहते हैं
क्रोध आदिके वश रत्नत्रयरूप धर्ममें साधन किन्तु स्वभावसे ही अपवित्र शरीर आदिमें जो ग्लानि होती है वह विचिकित्सा है। वह सम्यग्दर्शन आदिके प्रभावमें अरुचि रूप होनेसे सम्यग्दर्शनका मल है-दोष है ।॥७९॥
विशेषार्थ-शरीर तो स्वभावसे ही गन्दा है, उसके भीतर मल-मूत्र-रुधिर आदि भरा है, ऊपरसे चामसे मढा है। किन्तु धर्मका साधन है। मुनि उस शरीरके द्वारा ही तपश्चरण आदि करके धर्मका साधन करते हैं। किन्तु वे शरीरकी उपेक्षा ही करते हैं। इससे उनका शरीर बाहरसे भी मलिन रहता है । ऐसे शरीरको देखकर उससे घृणा करना वस्तुतः धर्मके प्रति ही अरुचिका द्योतक है । अतः वह सम्यग्दर्शनका अतीचार है ॥७९॥
महापुरुषोंके द्वारा अपने शरीर में विचिकित्सा न करनेका माहात्म्य बतलाते हैं--
सन्त पुरुष मुक्तात्माओंकी गुणसम्पत्तिकी अभिलाषासे दोष-वात-पित्त-कफ, धातुरुधिर, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा, वीर्य, और मल, पसीना वगैरहसे बने हुए तथा आपत्तियों के
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