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द्वितीय अध्याय
"सरागवीतरागात्मविषयं तद्विधा स्मृतम् ।
प्रशमादिगुणं पूर्वं परं त्वात्मविशुद्धिभाक् ॥” [ सो. उ. पा. २२७ श्लो. ] ॥५१॥
अथ प्रशमादीनां लक्षणमाह
प्रशमो रागादीनां विगमोऽनन्तानुबन्धिनां संवेगः ।
भवभयमनुकम्पाखिलसत्त्वकृपास्तिक्यमखिलतत्त्वमतिः ॥ ५२ ॥
रागादीनां - क्रोधादीनां साहचर्यान्मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोश्च विगमः - अनुद्रेकः, अखिलतत्त्वमतिः - यस्य परद्रव्यादेयत्वेनोपादेयत्वेन प्रतिपत्तिः ॥५२॥
अथ स्वपरगत सम्यक्त्व सद्भावनिर्णयः केन स्यादित्याह -
विवक्षा होनेपर आस्तिक्य ही तत्त्वार्थ श्रद्धान है। शंका - प्रशमादिका अनुभव सम्यग्दर्शन के समकाल में होता है इसलिए प्रशमादि सम्यग्दर्शनके फल नहीं हैं । समाधान - प्रशमादि सम्यग्दर्शनके अभिन्न फल हैं इसलिए सम्यग्दर्शनके समकालमें उनका अनुभव होने में कोई विरोध नहीं है । शंका – दूसरों में प्रशमादिका अस्तित्व सन्दिग्धासिद्ध है इसलिए उनसे सम्यग्दर्शनका बोध नहीं हो सकता ? समाधान - शरीर और वचनके व्यवहार विशेष से दूसरोंमें प्रशमादिका निर्णय होता है यह हम कह आये हैं । अपने में प्रशमादिके होनेपर जिस प्रकारके कायादि व्यवहार विशेष निर्णीत किये जाते हैं, दूसरोंमें भी उस प्रकार के व्यवहार विशेष प्रशमादिके होनेपर ही होते हैं ऐसा निर्णय करना चाहिए । शंका - तो फिर जैसे
रागी जीवों में तत्त्वार्थ श्रद्धानका निर्णय प्रशमादिसे किया जाता है वैसे ही वीतरागियों में भी उसका निर्णय प्रशमादिसे क्यों नहीं किया जाता ? समाधान -नहीं, क्योंकि वीतरागी में तत्त्वार्थ श्रद्धान आत्मविशुद्धि मात्र है और समस्त मोहका अभाव हो जानेपर संशयादि सम्भव नहीं हैं । अतः स्वसंवेदनसे ही उसका निश्चय हो जाता है । दूसरोंमें निश्चयके उपाय यद्यपि सम्यग्दर्शनके चिह्न प्रशम आदि होते हैं किन्तु प्रशम आदिके निर्णयके उपाय कायादि व्यवहार विशेष वहाँ नहीं होते । शंका - तो अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त प्रशमादिके द्वारा सम्यग्दर्शनका अनुमान कैसे किया जा सकता है ? क्योंकि वीतरागके समान अप्रमत्त आदि में भी कोई व्यापार विशेष नहीं होता ? समाधान - नहीं, क्योंकि ऐसा नहीं कहा है कि सभी सरागी जीवों में सम्यग्दर्शनका अनुमान प्रशमादि होता है । यथायोग्य सरागियों में सम्यग्दर्शन प्रशमादिके द्वारा अनुमान किया जाता है और वीतरागियों में आत्मविशुद्धि मात्र है, यह कहा है ॥ ५१ ॥
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प्रशम आदिका लक्षण कहते हैं
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अनन्तानुबन्धी अर्थात् बीजांकुर न्यायसे अनन्त संसारका प्रवर्तन करनेवाले क्रोध, मान, माया, लोभ तथा उनके सहचारी मिथ्यात्व और सम्यक् मिध्यात्व के अनुद्रेकको प्रशम कहते हैं | संसारसे डरनेको संवेग कहते हैं । नरकादि गतियों में कष्ट भोगनेवाले समस्त त्रस और स्थावर जीवोंपर दया अनुकम्पा है । समस्त स्व और पर द्रव्योंकी उपादेय और हेय रूपसे प्रतिपत्ति अर्थात् हेय परद्रव्यादिको हेयरूपसे और उपादेय अपने शुद्ध आत्मस्वरूपको उपादेय रूपसे श्रद्धान करना आस्तिक्य है ॥५२॥
अपने में तथा दूसरोंमें सम्यक्त्वके सद्भावका निर्णय करनेका उपाय बतलाते हैं
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