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धर्मामृत (अनगार) सहकारि-बहिरङ्गं कारणं तदन्तरेण माधुपादानादेव चेतनालक्षणकार्योत्पत्त्यनुपपत्तेः । सकलकार्याणामन्तरङ्गबहिरङ्गकारणकलापाधीनजन्मत्वात् । तत्त्वान्तरं-पृथिव्यादिचतुष्टयादन्यत् । सः-'पथिव्या३ पस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा' इति चार्वाकसिद्धान्ते प्रसिद्धः । न च भूतानां
चैतन्यं प्रत्युपादानत्वमनुमानबाधनात् । तथाहि-यस्मिन् विक्रियमाणेऽपि यन्न विक्रियते न तत्तस्योपादानं,
यथा गोरश्वः, विक्रियमाणेष्वपि कायाकारपरिणतभूतेषु न विक्रियते च चैतन्यमिति । न चेदमसिद्धम, अन्यत्र ६ गतचित्तानां वासीचन्दनकल्पानां वा शस्त्रसंपातादिना शरीरविकारेऽपि चैतन्यस्याविकारप्रसिद्धः । तदविकारेऽपि विक्रियमाणत्वाच्च तद्वदेव । न चेदमप्यसिद्धं शरीरगतं प्राच्याप्रसन्नताद्याकारविनाशेऽपि कमनीयकामिनीसन्निधाने चैतन्ये हर्षादिविकारोपलम्भात् ॥३३॥ अथ का चेतना इत्याह
अन्वितमहमहमिकया प्रतिनियतार्थावभासिबोधेषु ।
प्रतिभासमानमखिलयंद्रूपं वेद्यते सदा सा चित् ॥३४॥ अहमहमिकया-य एवाहं पूर्व घटमद्राक्षं स एवाहमिदानी पटं पश्यामीत्यादिपूर्वोत्तराकारपरामर्शरूपया संवित्या। अखिलैः-समस्तैश्छद्मस्थैर्जीवैः । वेद्यते-स्वयमनुभूयते । चित्-चेतना। सा च कर्मफल-कार्य-शानचेतनाभेदात्रिधा ॥३४॥
विशेषार्थ-प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति उपादानरूप अन्तरंग कारण और सहकारिरूप बहिरंग कारणसे होती है। दोनोंके बिना नहीं होती। चार्वाक केवल चार ही तत्त्व मानता है और उन्हें जीवका उपादान कारण मानता है। ऐसी स्थितिमें प्रश्न होता है कि सहकारी कारण क्या है। यदि सहकारी कारण चार तत्त्वोंसे भिन्न है तो चार तत्त्वका नियम नहीं रहता । तथा पृथिवी आदि भूत चैतन्यके उपादान कारण भी नहीं हो सकते। उसमें युक्तिसे बाधा आती है उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जिसमें विकार आनेपर भी जो अविकारी रहता है वह उसका उपादान कारण नहीं होता। जैसे गायमें विकार आनेपर घोड़ेमें विकार नहीं आता अतः वह उसका उपादान कारण नहीं है। इसी तरह शरीरके आकाररूपसे परिणत पृथिवी आदि भूतोंमें विकार आ जानेपर भी चैतन्यमें कोई विकार नहीं आती, अतः वे उसका उपादान कारण नहीं हो सकते। यह बात असिद्ध नहीं है। जिनका ध्यान दूसरी ओर है और जिनके लिए छुरा और चन्दन समान है, शस्त्रके घातसे उनके शरीरमें विकार आनेपर भी चैतन्यमें कोई विकार नहीं आता। यह प्रसिद्ध बात है। इसका विशेष कथन प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रन्थोंमें देखा जा सकता है ॥३३॥
आगे चेतनाका स्वरूप कहते हैं
यथायोग्य इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करने योग्य घट-पट आदि पदार्थों को जाननेवाले ज्ञानोंमें अनुस्यूत और जो मैं पहले घटको देखता था वही मैं अब पटको देखता हूँ इस प्रकार पूर्व और उत्तर आकारको विषय करनेवाले ज्ञानके द्वारा अपने स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला जो रूप सभी अल्पज्ञानी जीवोंके द्वारा स्वयं अनुभव किया जाता है वही चेतना है ॥३४॥
विशेषार्थ-प्रत्येक मनुष्य अपनी प्रत्येक क्रियाकी अनुभूति करते समय ऐसा विकल्प करता है, मैं खाता हूँ। मैं जाता हूँ। मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ। इस तरह यह जो प्रत्येक ज्ञानमें 'मैं मैं' यह रूप मोतीकी मालामें अनुस्यूत धागेकी तरह पिरोया हुआ है। इसके साथ ही 'जो मैं पहले अमुक पदार्थको देखता था वही मैं अब अमुक पदार्थको देखता हूँ' इस प्रकारका ज्ञान होता है जो पूर्व अवस्था और उत्तर अवस्था दोनोंको अपनाये हुए हैं। इस
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