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द्वितीय अध्याय
१४९ स्थितिखण्डनादयः सन्ति । क्रमेण ( अशुभप्रकृतीनामनुभागोऽनन्तगुणहान्या शुभ-) प्रकृतीनामनन्तगुणवृद्ध्या वर्तते । तत्रानिवृत्त करणस्य संख्येयेषु भागेषु गतेष्वन्तर-( करणमारभते येन दर्शनमोहनीयं निहत्य चरमसमये ) त्रिधाकरोति शुद्धाशुद्धमिश्रभेदेन सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यक्मिथ्यात्वं चेति । श्लोकः
प्रश ( मैय्य ततो भव्यः सहानन्तानुबन्धिभिः। ता मोहप्रकृती-) स्तिस्रो याति सम्यक्त्वमादिमम् ॥ संवेगप्रशमास्तिक्यदयादिव्यक्तलक्षणम् ।
तत्सर्वदुःखविध्वंसि त्यक्तशंकादिदूषणम् ॥ [अमित. पं. सं. १।२८९-२९०] ॥४६-४७॥ । अथ को निसर्गाधिगमावित्याह
विना परोपदेशेन सम्यक्त्वग्रहणक्षणे । तत्त्वबोधो निसर्गः स्यात्तत्कृतोऽधिगमश्च सः॥४८॥
कर्मकी सात प्रकृतियोंका क्रमसे क्षय या उपशम या क्षयोपशम होनेपर जीवोंके क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यकदर्शन होता है। एक जीवके एक कालमें एक ही सम्यग्दर्शन होता है। वह सम्यग्दर्शन दर्शनमोहसे रहित आत्मस्वरूप है। रुचिका नाम सम्यग्दर्शन नहीं है । क्योंकि रुचि कहते हैं इच्छाको, अनुरागको। किन्तु जिनका मोह नष्ट हो जाता है उनमें रुचिका अभाव हो जाता है। ऐसी स्थितिमें उनके सम्यक्त्वका अभाव होनेसे सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका भी अभाव होनेसे मुक्तिका भी अभाव हो जायेगा। पहले जो सम्यक्त्वका लक्षण तत्त्वरुचि कहा है वह उपचारसे कहा है । धवला टीकामें कहा है- 'अथवा 'तत्त्व रुचिको सम्यक्त्व कहते हैं। यह लक्षण अशुद्धतर नयकी अपेक्षासे जानना।'
___ आचार्य विद्यानन्दने भी कहा है किन्हींका कहना है कि इच्छाश्रद्धानको सम्यक्त्व कहते हैं । यह ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेसे मोहरहित जीवोंके श्रद्धानका अभाव प्राप्त होनेसे ज्ञान और चारित्रके भी अभावका प्रसंग आता है ॥४६-४७||
निसर्ग और अधिगमका स्वरूप कहते हैं
सम्यग्दर्शनको ग्रहण करनेके समय गुरु आदिके वचनोंकी सहायताके बिना जो तत्त्वज्ञान होता है वह निसर्ग है। और परोपदेशसे जो तत्त्वज्ञान होता है वह अधिगम है ॥४८॥
विशेषार्थ-आचार्य विद्यानन्दने भी कहा है
'परोपदेशके बिना तत्त्वार्थके परिज्ञानको निसर्ग कहते हैं और परोपदेशपूर्वक होनेवाले तत्त्वार्थ के परिज्ञानको अधिगम कहते हैं।
इस वार्तिक की टीकामें आचार्य विद्यानन्दने जो चर्चा उठायी है उसे यहाँ उपयोगी होनेसे दिया जाता है-यहाँ निसर्गका अर्थ स्वभाव नहीं है क्योंकि स्वभावसे उत्पन्न हुआ
१-२-३. ( ) एतच्चिह्नाङ्किताः पाठा मूलप्रतौ विनष्टाः। भ. कु. च. पूरिताः । सर्वमिदममितगति
पञ्चसंग्रहादेव गृहीतं ग्रन्यकृता । ४. अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं अशुद्धतरनयसमाश्रयणात् ।
-पट्.खं. पु. १, पृ. १५१
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