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धर्मामृत ( अनगार) (त्रि-) अज्ञानशुद्धिदं-त्रयाणामज्ञानानां मिथ्यामतिश्रुतावधीनां शुद्धि यथार्थग्राहित्वहेतुं नर्मल्यं दत्ते । तत्त्वार्थश्रद्धानात्म-तत्त्वानां श्रद्धानं तथेति प्रतिपत्तिर्यस्मात्तदर्शनमोहरहितमात्मस्वरूपं न पुना रुचिस्तस्याः ३ क्षीणमोहेष्वभावात् । तथा च सम्यक्त्वाभावेन ज्ञानचारित्राभावात् तेषां मुक्त्यभावः स्यात् । तदुक्तम्
'इच्छाश्रद्धानमित्येके तदयुक्तममोहिनः ।।
श्रद्धानविरहासक्तेमा॑नचारित्रहानितः ।।' [ तत्त्वार्थश्लोक. २।१० ] ६ यत्तु तत्त्वरुचिमिति प्रागुक्तं तदुपचारात् । उक्तं च
'चतुर्गतिभवो भव्यः शुद्धः संज्ञी सुजागरी।
सल्लेश्यो लब्धिमान् पूर्णो ज्ञानी सम्यक्त्वमर्हति ॥ [ ] अथ कालादिलब्धिविवरणम्-भव्यः कर्माविष्टोऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तपरिमाणे काले विशिष्टे (अवशिष्टे) प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवतीति काललब्धिः । आदिशब्देन वेदनाभिभवजातिस्मरण-जिनेन्द्रा दर्शनादयो गृह्यन्ते । श्लोकः
. 'क्षायोपशमिकी लब्धि शौद्धी देशनिकी भवीम् ।
प्रायोगिकी समासाद्य कुरुते करणत्रयम् ।।' [ अमि. पं. सं. १।२८७ ] सर्वघाति स्पर्द्धक कहते हैं। और आत्माके गुणोंको एकदेशसे ढाँकनेवाली कर्मशक्तिको देशघाति स्पर्द्धक कहते हैं। सर्वघातिस्पर्द्ध कोंका उदयाभावरूप भय और आगामी कालमें उदय आनेवाले कर्मनिषकोंका उपशम तथा देशघातिस्पर्द्धकोंका उदय, इस सबको क्षयोपशम कहते हैं। काँसे बद्ध भव्य जीव अर्ध पुद्गल परावत प्रमाण काल शेष रहनेपर प्रथम सम्यक्त्वके योग्य होता है, क्योंकि एक बार सम्यक्त्व होनेपर जीव इससे अधिक समयतक संसारमें नहीं रहता। इसे ही काललब्धि कहते हैं। सम्यग्दर्शनके बाह्य कारण इस प्रकार हैं
देवोंमें प्रथम सम्यग्दर्शनका बाह्य कारण धर्मश्रवण, जातिस्मरण, अन्य देवोंकी ऋद्धिका दर्शन और जिन महिमाका दर्शन हैं। ये आनत स्वर्गसे पहले तक जानना । आनत, प्राणत, आरण, अच्युत स्वर्गके देवोंके देवद्धिदर्शनको छोड़कर अन्य तीन बाह्य कारण हैं। नवप्रैवेयकवासी देवोंके धर्मश्रवण और जातिस्मरण दो ही बाह्य कारण हैं । मनुष्य और तिथंचोंके जातिस्मरण, धर्मश्रवण और देवदर्शन ये तीन बाह्य कारण हैं। प्रथम तीन नरकोंमें जातिस्मरण, धर्मश्रवण और वेदना अभिभव ये तीन बाह्य कारण हैं। शेष नरकोंमें जातिस्मरण
और वेदनाभिभव दो ही बाह्य कारण हैं। . लब्धियोंके विषयमें कहा है
___भव्य जीव क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशनालब्धि और प्रायोग्यलपिको प्राप्त करके तीन करणोंको करता है। पूर्वबद्ध कर्मपटलके अनुभाग स्पर्द्ध कोंका विशुद्ध परिणामोंके योगसे प्रति समय अनन्त गुणहीन होकर उदीरणा होना क्षयोपशम लब्धि है।
अनुभागस्पद्धकका स्वरूप इस प्रकार कहा है१. धर्मश्रुति-जातिस्मृति-सुरद्धिजिनमहिमदर्शनं मरुताम् ।
बाह्यं प्रथमदृशोऽङ्गं विना सुरर्धीक्षयानतादिभुवाम् ॥ ग्रेवेयकिणां पूर्वे द्वे सजिनार्वेक्षणे नरतिरश्चाम् ।
सरुगभिभवे त्रिषु प्राक् श्वभ्रेष्वन्येषु सद्वितीयोऽसौ ।। २. वर्गः शक्तिसमूहोऽणोरणूनां वर्गणोदिता । ___ वर्गणानां समूहस्तु स्पर्धक स्पर्धकापहै ॥ -अमित. पं. सं. ११४५
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