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धर्मामृत (अनगार )
इतरजनानां तु स्वपरयोर्बुद्धिपूर्वकः सुखदुःखसाधनप्रयोगः 'पर्ययवृत्तिः' इत्यनेन सामान्यतः परिणाममात्रस्याप्याश्रयणात् । यल्लौकिका :
'कर्मान्यजन्मजनितं यदि सर्वदैवं तत्केवलं फलति जन्मनि सत्कुलाद्ये । बाल्यात्परं विनयसौष्ठवपात्रतापि पुंदैवजा कृषिवदित्यत उद्यमेन ॥' 'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीर्देवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति । देवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः ॥' आर्षेऽप्युक्तम्
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'असिषी कृषिविद्या वाणिज्यं शिल्पमेव च ।
कर्माणीमानि षोढा स्युः प्रजाजीवनहेतवः ॥' [ महापु. १६ । १७९ ] ॥४३॥ अथ मोक्षतत्त्वं लक्षयति
येन कृत्स्नानि कर्माणि मोक्ष्यन्तेऽस्यन्त आत्मनः ।
रत्नत्रयेण मोक्षोऽसौ मोक्षणं तत्क्षयः स वा ॥४४॥
कृत्स्नानि - प्रथमं घातीनि पश्चादघातीनि च । अस्यन्ते अपूर्वाणि परमसंवरद्वारेण निरुध्यन्ते पूर्वोपात्तानि च परमनिर्जराद्वारेण भृशं विश्लिष्यन्ते येन रत्नत्रयेण सो मोक्षो जीवन्मुक्तिलक्षणो भावमोक्षः स्यात् । १५ तत्क्षय : - वेदनीयायुर्नामगोत्ररूपाणां कर्मपुद्गलानां जीवेन सहात्यन्तविश्लेषः । स एष द्रव्यमोक्षः । उक्तं च-
है और कर्मको जो बलपूर्वक उद्यावली में लाकर भोगा जाता है वह अविपाक निर्जरा है । बुद्धिपूर्वक प्रयुक्त अपने परिणामको उपक्रम कहते हैं। शुभ और अशुभ परिणामका निरोध रूप जो भावसंबर है वह है शुद्धोपयोग । उस शुद्धोपयोग से युक्त तप मुमुक्षु जीवोंका उपक्रम है । कहा भी है
'संवर और शुद्धोपयोगसे युक्त जो जीव अनेक प्रकारके अन्तरंग बहिरंग तपोंमें संलग्न होता है वह नियमसे बहुत कर्मों की निर्जरा करता है' ।
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ओंसे भिन्न अन्य लोगोंका अपने और दूसरोंके सुख और दुःखके साधनों का बुद्धिपूर्वक प्रयोग भी उपक्रम है । क्योंकि 'पर्ययवृत्ति' शब्द से सामान्यतः परिणाम मात्रका भी ग्रहण किया है । अतः अन्य लोग भी अपनी या दूसरोंकी दुःख निवृत्ति और सुख प्राप्तिके लिए जो कुछ करते हैं उससे उनके भी औपक्रमिकी निर्जरा होती है। कहा भी है
अचानक उपस्थित होने वाला इष्ट या अनिष्ट दैवकृत हैं उसमें बुद्धिपूर्वक व्यापारकी अपेक्षा नहीं है । और प्रयत्नपूर्वक होनेवाला इष्ट या अनिष्ट अपने पौरुषका फल है क्योंकि उसमें बुद्धिपूर्वक व्यापारकी अपेक्षा है ||४३||
मोक्षतत्वको कहते हैं
जिस रत्नत्रयसे आत्मासे समस्त कर्म पृथक् किये जाते हैं वह मोक्ष है । अथवा समस्त कर्मोंका नष्ट हो जाना मोक्ष है || ४४॥
विशेषार्थ - मोक्ष के भी दो भेद हैं-भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । रत्नत्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक् चारित्र लेना चाहिए। इतना ही नहीं, बल्कि उन रूप परिणत आत्मा लेना चाहिए । अतः जिस निश्चय रत्नत्रयरूप आत्माके द्वारा
१. अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः ।
बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥ -आप्तमो. ९१ श्लो. ।
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