________________
धर्मामृत (अनगार )
तद्विधिः- द्रव्यबन्धप्रकारः । तस्मात् — ज्ञानावरणादिलक्षणात् स्वभावात् । रसः -- कर्मपुद्गलानां स्वगतसामर्थ्यविशेषः । अणुगणना - परमाणुपरिच्छेदेनावधारणम् । कर्मणां - कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानाम् । उक्तं च—
३
१३८
स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् ।
अनुभागो विपाकस्तु प्रदेशोंऽशकल्पनम् ॥ [ अमित. श्राव. ३।५६ ] ॥३९॥
स्वभावसे च्युत न होना स्थिति है । उसी प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मोंका पदार्थको न जानने देने रूप अपने स्वभावसे अमुक कालतक च्युत न होना स्थिति है । अर्थात् पदार्थको न जानने देने में सहायक आदि कार्यकारित्व रूपसे च्युत न होते हुए इतने काल तक ये बँधे रहते हैं | इसीको स्थितिबन्ध कहते हैं । तथा जैसे बकरी, गाय, भैंस आदिके दूधका तीव्रता मन्दता आदि रूप से अपना कार्य करने में शक्ति विशेषको अनुभव कहते हैं वैसे ही कर्म पुद्गलोंका अपना कार्य करने में जो शक्तिविशेष है उसे अनुभाग बन्ध कहते हैं । अर्थात् अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ कर्म परमाणुओं का बन्ध अनुभागबन्ध है । प्रकृतिबन्ध में तो आस्रवके द्वारा लाये गये आठों कर्मोंके योग्य कर्मपरमाणु बँधते हैं और अनुभागबन्ध में शक्ति विशेषसे विशिष्ट होकर बँधते हैं इस तरह प्रकृतिबन्धसे इसमें विशेषता है। किसी जीव में शुभ परिणामों का प्रकर्ष होनेसे शुभ प्रकृतियोंका प्रकृष्ट अनुभाग बँधता है और अशुभ प्रकृतियोंका निकृष्ट (अल्प ) अनुभाग बँधता है । और अशुभ परिणामोंका प्रकर्ष होनेपर अशुभ प्रकृतियोंका प्रकृष्ट अनुभाग बँधता है और शुभ प्रकृतियोंका मन्द अनुभाग बँधता है । उस अनुभाग के भी चार भेद हैं । घातिकर्मोंके अनुभागकी उपमा लता, दारु, हड्डी और पत्थर से दी जाती है । अशुभ अवातिकर्मों के अनुभागकी उपमा नीम, कांजीर, विष और हलाहल विषसे दी जाती है । तथा शुभ अघातिकर्मों के अनुभागकी उपमा गुड़, खाण्ड, शर्करा और अमृतसे दी जाती है। जैसे ये उत्तरोत्तर विशेष कठोर या कटुक या मधुर होते हैं वैसे ही कर्मोंका अनुभाग भी जानना । तथा कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कन्धोंका परिमाण परमाणुओंके द्वारा अवधारण करना कि इतने परमाणु प्रमाण प्रदेश ज्ञानावरण आदि रूपसे बँधे हैं इसे प्रदेशबन्ध कहते हैं । कहा भी है
'स्वभावको प्रकृति कहते हैं । कालकी मर्यादाको स्थिति कहते हैं । विपाकको अनुभाग कहते हैं और परिमाणके अवधारणको प्रदेश कहते हैं' ।
जैसे खाये गये अन्नका अनेक विकार करनेमें समर्थ वात, पित्त, कफ तथा खल और रसरूपसे परिणमन होता है वैसे ही कारणवश आये हुए कर्मका नारक आदि नानारूपसे आत्मामें परिणमन होता है। तथा जैसे आकाश से बरसता हुआ जल एकरस होता है किन्तु पात्र आदि सामग्री के कारण अनेक रसरूप हो जाता है, वैसे ही सामान्य ज्ञानावरण रूपसे आया हुआ कर्म कषाय आदि सामग्रीकी हीनाधिकता के कारण मतिज्ञानावरण आदिरूपसे परिणमता है । तथा सामान्यरूपसे आया हुआ वेदनीय कर्म कारणविशेष से सातावेदनीय, असातावेदनीय रूप से परिणमता है । इसी प्रकार शेष कर्मोंके भी सम्बन्ध में जानना चाहिए । इस तरह सामान्यसे कर्म एक है । पुण्य और पापके भेदसे दो प्रकारका है। प्रकृतिबन्ध आदि के भेद से चार प्रकारका है । ज्ञानावरण आदिके भेदसे आठ प्रकारका । इस तरह कर्मके संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं । इन बन्धोंका मूल कारण जीवके योग और कषायरूप भाव ही है ||३९||
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org