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प्रथम अध्याय
८३
अथ ध्यानस्य सामग्रीक्रमं साक्षादसाक्षाच्च फलं कथयति
इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चेतः स्थिरं ततः ।
ध्यानं रत्नत्रयं तस्मात्तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ॥११४॥ मोहादि:-इष्टानिष्टार्थयोः स्वरूपानवबोधो मोहः । इष्टे प्रीती रागः । अनिष्टे चाप्रीतिढेषः । ततः स्थिराच्चेतसः । इति भद्रम् ॥११४॥
इत्याशाधरदब्धायां धर्मामतपञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां प्रथमोऽध्यायः । अत्राध्याये ग्रन्थप्रमाणं द्वादशोत्तराणि च चत्वारि शतानि । अङ्कतः ॥४१२॥
विशेषार्थ-ऊपर समाधिका अर्थ रत्नत्रयकी एकाग्रता कहा है। यहाँ उसे ही स्पष्ट किया है। यहाँ बतलाया है कि छहों कारक आत्मस्वरूप जब होते हैं तभी रत्नत्रयकी एकाग्रता होती है और तभी मोक्षकी प्राप्ति होती है ।।११३॥
__आगे ध्यानकी सामग्रीका क्रम और उससे होनेवाले साक्षात् या परम्परा फलको कहते हैं
- इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह-राग-द्वेषको नष्ट करनेसे चित्त स्थिर होता है, चित्त स्थिर होनेसे ध्यान होता है। ध्यानसे रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है। रत्नत्रयसे मोक्ष होता है। मोक्षसे सुख होता है ॥११४॥
विशेषार्थ-द्रव्यसंग्रहके अन्तमें कहा है कि ध्यानमें निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग दोनों ही प्राप्त होते हैं इसलिए ध्यानाभ्यास करना चाहिए। किन्तु चित्त स्थिर हुए बिना ध्यान होना सम्भव नहीं है अतः ध्यान के लिए चित्तका स्थिर होना जरूरी है। चित्त स्थिर करनेके लिए इष्ट विषयोंसे राग और अनिष्ट विषयोंसे द्वेष हटाना चाहिए। ये राग-द्वेष ही हैं जो ध्यानके समय बाधा डालते हैं और मन इधर-उधर भटकता है। यहाँ मोह-राग-द्वेषका स्वरूप कहते हैं-शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वोंमें मिथ्या अभिप्रायका जनक दर्शनमोह है उसीका भेद मिथ्यात्व है जो अनन्त संसारका कारण है। अध्यात्ममें मोह दर्शनमोहको ही कहा है और रागद्वेष चारित्रमोहको कहा है। निर्विकार स्वसंवित्तिरूप वीतराग चारित्रको ढाँकनेवाला चारित्रमोह है अर्थात् रागद्वेष है, क्योंकि कषायोंमें क्रोधमान तो द्वेष रूप है और माया लोभ रागरूप है। नोकषायोंमें स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति तो रागरूप हैं, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा द्वेषरूप हैं। यह प्रश्न हुआ करता है कि रागद्वेष कर्मसे पैदा होते हैं या जीवसे पैदा होते हैं। इसका उत्तर यह है कि जैसे पुत्र स्त्री और पुरुष दोनों के संयोगसे पैदा होता है वैसे ही रागद्वेष भी जीव और कर्मके संयोगसे उत्पन्न होते हैं। किन्तु नयविवक्षासे एक देश शुद्धनिश्चयनयसे कर्मजनित हैं और अशुद्ध निश्चयनयसे, जो शुद्धनिश्चयकी अपेक्षा व्यवहार ही है, जीव-जनित हैं। इनसे बचना चाहिए तभी धर्म में मन लग सकता है। [-द्रव्य सं. टी., गा. ४८] ॥११४।। इस प्रकार आशाधर रचित धर्मामृतके अन्तर्गत अनगार भर्मामृतकी स्वोपज्ञ टोकानुसारी
हिन्दी टीकामें धर्मस्वरूप निरूपण नामक प्रथम अध्याय समाप्त हुआ।
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