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द्वितीय अध्याय
अपि च
वृक्षांश्छित्वा पशून् हत्वा स्नात्वा रुधिरकर्दमे ।
यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते ॥[ . तद्धी:-देवगुरुधर्मबुद्धिः । इतरा निर्दोषे देवे निर्ग्रन्थे गुरौ अहिंसालक्षणे च धर्मे तबुद्धिः ॥१२॥ अथ सम्यक्त्वसामग्रीमाशंसति
तद् द्रव्यमव्यथमुदेतु शुभैः स देशः संतन्यतां प्रतपतु प्रततं स कालः। भावः स नन्दतु सदा यदनुग्रहेण प्रस्तौति तत्त्वरुचिमाप्तगवी नरस्य ॥१३॥
द्रव्यं-जिनदेहतत्प्रतिमादि । देशः-समवसरणचैत्यालयादिः । काल:-जिनजन्माभिषेकनिष्कमणादिः । भावः-औपशमिकादिः । तत्त्वरुचि-तत्त्वं जीवादिवस्तुयाथात्म्यम् । उक्तं चअरहन्त आदिका श्रद्धान ही यथार्थ श्रद्धान है और वह तत्त्वश्रद्धान होनेपर ही होता है। इसलिए जिसके अरहन्त आदिका सच्चा श्रद्धान होता है उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही है। तथा तत्त्वोंमें जीव-अजीवके श्रद्धानका प्रयोजन स्व और परका भिन्न श्रद्धान है। और आस्रव आदिके श्रद्धानका प्रयोजन रागादिको छोड़ना है। सो स्व और परका भिन्न श्रद्धान होनेपर परद्रव्यमें रागादि न करनेका श्रद्धान होता है। इस तरह तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन स्व और परका भिन्न श्रद्धान है और स्व और परके भिन्न श्रद्धानका प्रयोजन है आपको आप जानना अतः आत्मश्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है क्योंकि वही मूलभूत प्रयोजन है। इस तरह भिन्न प्रयोजनोंसे भिन्न लक्षण कहे हैं। वास्तव में तो जब मिथ्यात्व कर्मका उपशमादि होनेपर सम्यक्त्व होता है वहाँ चारों लक्षण एक साथ पाये जाते हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानमें चारों हो लक्षण होते हैं। यहाँ सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे धर्म के श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है क्योंकि
जो स्त्री, शस्त्र, रुद्राक्षमाला आदि रागके चिह्नोंसे कलंकयुक्त हैं तथा लोगोंका बुराभला करने में तत्पर रहते हैं, वे देव मुक्तिके साधन नहीं हो सकते।
तथा जो सब प्रकारकी वस्तुओंके अभिलाषी हैं, सब कुछ खाते हैं जिनके भक्ष्यअभक्ष्यका विचार नहीं है, परिग्रह रखते हैं, ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करते, तथा मिथ्या उपदेश करते हैं वे गुरु नहीं हो सकते।
तथा-देव, अतिथि, मन्त्रसिद्धि, औषध और माता-पिताके उद्देश्यसे किये गये श्राद्ध के निमित्तसे भी की गयी हिंसा मनुष्यको नरकमें ले जाती है। तब अन्य प्रकारसे की गयी हिंसाका तो कहना ही क्या है ?
और भी कहा है
यदि वृक्षोंको काटनेसे, पशुओंकी हत्या करनेसे और खूनसे भरी हुई कीचड़में स्नान करनेसे स्वर्गमें जाते हैं तो फिर नरकमें क्या करनेसे जाते हैं?
अतः निर्दोष देव, निम्रन्थ गुरु और अहिंसामयी धर्म में बुद्धि ही सम्यक्त्व है ॥१२॥ आगे सम्यक्त्वकी सामग्री बतलाते हैं
वह द्रव्य बिना किसी बाधाके अपना कार्य करनेके लिए समर्थ हो, वह देश सदा शुभ कल्याणोंसे परिपूर्ण रहे, वह काल सदा शक्ति सम्पन्न रहे, और वह भाव सदा समृद्ध हो जिनके अनुग्रहसे परापर गुरुओंकी वाणी जीवमें उसी प्रकार, तत्त्व रुचि उत्पन्न करती है जैसे प्रामाणिक पुरुषके द्वारा दी गयी विश्वस्त गौ मनुष्यको दूध प्रदान करती है ।।१३।।
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