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धर्मामृत (अनगार )
'चेतनोऽचेतनो वार्थो यो यथैव व्यवस्थितः ।
तथैव तस्य यो भावो याथात्म्यं तत्त्वमुच्यते ॥' [ तत्त्वानुशा. १११ ]
तस्य रुचिः श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मस्वरूपं न त्विच्छालक्षणं, तस्योपशान्तकषायादिषु मुक्तात्मसु वासंभवात् । आप्तगवी - परापरगुरूणां गौर्वाक् तत्त्वरुचि प्रस्तौति - प्रक्षरति सुरभिरिव क्षीरम् । नरस्य – मानुषस्यात्मनो वा ॥१३॥
अथ परमाप्तलक्षणमाह
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मुक्तोऽष्टादशभिर्दोषैर्य ुक्तः सार्वज्ञसंपदा ।
शास्ति मुक्तिपथं भव्यान् योऽसावाप्तो जगत्पतिः ॥१४॥
दोषः । ते यथा—
क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च स्वेदः खेदो मदो रतिः ॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश ध्रुवाः । त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषाः साधारणा इमे ॥
एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः । - [ आप्तस्वरूप १५-१७ । ]
एतेनापायापगमातिशय उक्तः । सार्वश्यसंपदा - सार्वश्ये अनन्तज्ञानादिचतुष्टय-लक्षणायां जीवन्मुक्तो, संपत् - समवसरणाष्टमहाप्रातिहार्यादिविभूतिस्तया । एतेन ज्ञानातिशयः पूजातिशयश्चोक्तः । शास्तीत्यादिः । एतेन वचनातिशय उक्तः । एवमुत्तरत्रापि बोध्यम् ॥१४॥
विशेषार्थ — सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिकी सामग्री है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । द्रव्य है जिनबिम्ब आदि । क्षेत्र है समवसरण, चैत्यालय आदि । काल है जिन भगवान्का जन्मकल्याण या तपकल्याणक आदिका काल या जीवके संसार परिभ्रमणका काल जब अर्धपुद्गल परावर्त शेष रहे तब सम्यग्दर्शन होता है । क्योंकि सम्यग्दर्शन होनेपर जीव इससे अधिक काल तक संसार में भ्रमण नहीं करता । तथा जब जीव सम्यग्दर्शनके अभिमुख होता है तो उसके अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण रूप भाव होते हैं। ये ही भाव हैं जिनके बिना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती । इस सब सामग्री के होनेपर जीवकी तत्त्व में रुचि होती है। आचार्य परम्परासे चली आती हुई जिनवाणीको सुनकर वस्तुके यथार्थ स्वरूपके प्रति रुचि अर्थात् श्रद्धान होता है । तत्त्वका स्वरूप इस प्रकार कहा है
जो चेतन या अचेतन पदार्थ जिस रूपसे स्थित है उसका उसी रूपसे जो भाव है उसे याथात्म्य या तत्त्व कहते हैं ।
उस तत्त्वकी रुचि अर्थात् विपरीत अभिप्रायरहित श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । वह सम्यग्दर्शन आत्माका परिणाम है । रुचिका अर्थ इच्छा भी होता है । किन्तु यहाँ इच्छा अर्थ नहीं लेना चाहिए । इच्छा मोहकी पर्याय है अतः ग्यारहवें आदि गुणस्थानों में तथा मुक्त जीवोंमें इच्छा नहीं होती, किन्तु सम्यग्दर्शन होता है || १३||
आगे परम आप्तका लक्षण कहते हैं
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जो अठारह दोषोंसे मुक्त है, और सार्वज्ञ अर्थात् अनन्तज्ञान आदि चतुष्टयरूप जीवन्मुक्ति के होनेपर समवसरण, अष्ट महाप्रातिहार्य आदि विभूति से युक्त है तथा भव्य जीवों को मोक्षमार्गका उपदेश देता है वह तीनों लोकोंका स्वामी आप्त है || १४ ||
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