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द्वितीय अध्याय
अथैकान्त मिथ्यात्वस्य दोषमाख्याति-
अभिसरति यतोऽङ्गी सर्वथैकान्तसंवित् परयुवतिमनेकान्तात्मसंवित्प्रियोऽपि । मुहुरुपहितान बन्धदुःखानुबन्धं
मनुषजति विद्वान् को नु मिथ्यात्वशत्रुम् ॥५॥
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सर्वथैकान्ताः – केवलनित्य-क्षणिक भावाभाव-भेदाभेदवादाः । संवित्-प्रतिज्ञा ज्ञानं वा । अपि, न परं मिथ्यादृष्टिरित्यर्थः । नानाबन्धाः - प्रकृतिस्थित्यादिकर्मबन्धप्रकाराः रज्जुनिगडादिबन्धनानि च । अनुषजति - अनुबध्नाति ॥५॥
अथ विनयमिथ्यात्वं निन्दति -
'विणयाओ होइ मोक्खं किज्जइ पुण तेण गद्दहाईणं ।
अयि गुणागुणाय विषयं मिच्छत्तनडिएण || ' [ भावसंग्रह ७४ ] दुर्विधेः - दुर्देवस्य दुरागमप्रयोगस्य वा ॥ ६ ॥
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शिवपूजादिमात्रेण मुक्तिमभ्युपगच्छताम् । निःशङ्कं भूतघातोऽयं नियोगः कोऽपि दुर्विधेः ॥६॥ शिवपूजा-स्वयमाहृतविल्वपत्रादियजन-गदुक (मुदक) प्रदान- प्रदक्षिणी करणात्मविडम्बनादिका । आदि- १२ शब्दाद् गुरुपूजादि । मुक्ति । तथा चोक्तम्
गौतम स्वामी गणधर होनेपर खिरी । इससे वह रुष्ट हो गया कि मुझ ग्यारह अंगके धरीके होते हुए भी दिव्यध्वनि नहीं हुई और गौतमके होनेपर हुई । द्वेषवश वह 'यह सर्वज्ञ नहीं है' ऐसा कहकर अलग हो गया और अज्ञानसे मोक्ष होता है इस मतको प्रकाशित किया | अस्तु ।
आगे एकान्त मिथ्यात्व के दोष कहते हैं
जिसके कारण यह प्राणी अनेकान्त संवित्तिरूप प्यारी पत्नीके होते हुए भी सर्वथा एकान्त संवित्तिरूप परस्त्रीके साथ अभिसार करता है, उस शत्रुतुल्य मिथ्यात्व के साथ कौन विद्वान् पुरुष सम्बन्ध रखेगा, जो बार-बार प्रकृतिबन्ध आदि नाना बन्धोंके कारण होनेवाले दुखों की परम्पराका जनक है ||१५||
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विशेषार्थ - मिध्यात्वसे बड़ा कोई शत्रु नहीं है इसीके कारण जीव नाना प्रकारके कर्मबन्धनोंसे बद्ध होकर नाना गतियोंमें दुःख उठाता है । इसीके प्रभाव से अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्वको एकान्तरूप मानता है । वस्तु क्षणिक ही है, नित्य ही है, भावरूप ही है या अभावरूप ही है, भेदरूप ही है या अभेदरूप ही है. इस प्रकारके एकान्तवाद फैले हुए हैं । एकान्तवादकी संवित्ति - ज्ञानको परस्त्रीकी उपमा दी है और अनेकान्तवाद की संवित्ति - ज्ञानको स्वस्त्रीकी उपमा दी है। जैसे दुष्ट लोगोंकी संगतिमें पड़कर मनुष्य घरमें प्रियपत्नीके होते हुए भी परस्त्रीके चक्र में फँसकर जेल आदिका कष्ट उठाता है उसी तरह अनेकान्तरूप वस्तुका ज्ञाता भी मिध्यात्व के प्रभाव में आकर एकान्तका अनुसरण करता है और कर्म - बन्धनसे बद्ध होकर दुःख उठाता है ||५||
आगे विनय मिध्यात्व की निन्दा करते हैं
केवल शिवपूजा आदिके द्वारा ही मुक्ति माननेवाले वैनयिकोंका निःशंक प्राणिघात दुर्दैवका कोई अलौकिक ही व्यापार है ||६||
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