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धर्मामृत ( अनगार) अथ प्रकारान्तरेण मिथ्यात्वभेदान् कथयन् सर्वत्र सर्वदा तस्यापकारकत्वं कथयति
तत्त्वारुचिरतत्वाभिनिवेशस्तत्त्वसंशयः ।
मिथ्यात्वं वा क्वचित्किचिन्नाश्रेयो जातु तादृशम् ॥१०॥ तत्त्वारुचि-वस्तुयाथात्म्ये नैसर्गिकमश्रद्धानम् । तथा चोक्तम्
एकेन्द्रियादिजीवानां घोराज्ञानविवर्तिनाम् । तीव्रसंतमसाकारं मिथ्यात्वमगृहीतकम् ।।
[अमित. पं. सं. १११३५ ] अतत्त्वाभिनिवेश:--गृहीतमिथ्यात्वम् । तच्च परोपदेशाज्जातं, तच्च त्रिषष्टयधिकत्रिशतभेदम् । .९ तद्यथा
'भेदाः क्रियाक्रियावादिविनयाज्ञानवादिनाम् । गृहीतासत्यदष्टीनां त्रिषष्टित्रिशतप्रमाः॥' तत्राशीतिशतं ज्ञेयमशीतिश्चतुरुतरा। द्वात्रिंशत् सप्तषष्टिश्च तेषां भेदा त(य)थाक्रमम् ।।'
[अमित. पं. सं. ११३०८-३०९ ]
विशेषार्थ-वेदको अपौरुषेय कहकर उसके ही प्रामाण्यको स्वीकार करनेवाले मीमांसक पुरुषकी सर्वज्ञताको स्वीकार नहीं करते । उनका कहना है कि वेदसे भूत, भावि, वर्तमान, तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट वस्तुओंका ज्ञान होता है। उसके अध्ययनसे ही मनुष्य सर्वज्ञाता हो सकता है। उसके बिना कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता । मीमांसादर्शनके प्रख्यात विद्वान् कुमारिलने अपने मीमांसाश्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक आदि ग्रन्थों में पुरुषकी सर्वज्ञताका बड़े जोरसे खण्डन किया है। क्योंकि जैनदर्शन अपने तीर्थंकरोंको और बौद्धदर्शन बुद्धको सर्वज्ञ मानते थे और समन्तभद्र स्वामीने अपनी आप्तमीमांसामें सर्वज्ञकी सिद्धि की है। उसीका खण्डन कुमारिलने किया है और कुमारिलका खण्डन भट्टाकलंकदेवने तथा उनके टीकाकार विद्यानन्द स्वामी, प्रभाचन्द्र आदि आचार्योंने किया है । यह सब युक्ति
और तर्कके आधारपर किया गया है। इसी तरह वेदमें प्राणिहिंसाके विधानको भी धर्म कहा जाता है। हिंसा और धर्म परस्परमें विरोधी हैं। जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म नहीं है और जहाँ धर्म है वहाँ हिंसा नहीं है। यह सब अज्ञानका ही विलास है कि मनुष्य धर्मके नामपर अधर्मका पोषण करता है । अतः अज्ञान मिथ्यात्व महादुःखदायी है ।।९।। ___ प्रकारान्तरसे मिथ्यात्वके भेदोंका कथन करते हुए बतलाते हैं कि मिथ्यात्व सर्वत्र सर्वदा अपकार ही करता है
तत्त्वमें अरुचि, अतत्त्वाभिनिवेश और तत्त्वमें संशय, इस प्रकार मिथ्यात्वके तीन भेद हैं। किसी भी देशमें और किसी भी कालमें मिथ्यात्वके समान कोई भी अकल्याणकारी नहीं है ॥१०॥
_ विशेषार्थ-वस्तुके यथार्थ स्वरूपके जन्मजात अश्रद्धानको तत्त्व-अरुचि रूप मिथ्यात्व कहते हैं। इसको नैसर्गिक मिथ्यात्व या अगृहीत मिथ्यात्व भी कहते हैं। यह मिथ्यात्व घोर अज्ञानान्धकारमें पड़े हुए एकेन्द्रिय आदि जीवोंके होता है। कहा भी है-'घोर अज्ञानमें पड़े हुए एकेन्द्रिय आदि जीवोंके तीव्र अन्धकारके तुल्य अगृहीत मिथ्यात्व होता है।'
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