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धर्मामृत ( अनगार) अथ धर्मार्जनविमुखस्य गुणान् प्रतिक्षिपति
धर्म श्रुति-स्मृति-स्तुतिसमर्थनाचरणचारणानुमतैः ।
यो नार्जयति कथंचन किं तस्य गुणेन केनापि ॥८॥ स्पष्टम् ॥८८॥
ननु लोकादेवावगम्य धर्मशब्दार्थोऽनुष्ठास्यते तत्कि तदर्थप्रतिपादनाय शास्त्रकरणप्रयासेनेति वदन्तं ६ प्रत्याह
लोके विषामृतप्रख्यभावार्थः क्षीरशब्दवत् ।
वर्तते धर्मशब्दोऽपि तत्तदर्थोऽनुशिष्यते ॥८९।। भावः-अभिधेयं वस्तु ॥८९॥ अथ धर्मशब्दार्थ व्यक्तीकरोतिधर्मः पुंसो विशुद्धिः सुदृगवगमचारित्ररूपा स च स्वां
सामग्री प्राप्य मिथ्यारुचिमतिचरणाकारसंक्लेशरूपम् । मूलं बन्धस्य दुःखप्रभवफलस्यावधन्वन्नधर्म
संजातो जन्मदुःखाद्धरति शिवसुखे जीवमित्युच्यतेऽर्थात् ॥१०॥ जो पुरुष धर्मसे विमुख रहता है उसके गुणोंका तिरस्कार करते हैं
जो पुरुष श्रुति, स्मृति, स्तुति और समर्थना इनमें से किसी भी उपायके द्वारा किसी भी तरहसे स्वयं आचरण करके या दूसरोंसे कराकर या अनुमोदनाके द्वारा धर्मका संचय नहीं करता उसके अन्य किसी भी गुणसे क्या लाभ है ।।८८॥
विशेषार्थ-धर्मके अनेक साधन हैं। गुरु आदिसे धर्म सुनना श्रुति है। उसे स्वयं स्मरण करना स्मृति है। धर्म के गुणोंका बखान करना स्तुति है । युक्ति पूर्वक आगमके बलसे धर्मका समर्थन करना समर्थन है। स्वयं धर्मका पालन करना आचरण है। दूसरोंसे धर्मका पालन कराना चारण है। और अनुमोदना करना अनुमत है। इस प्रकार कृत कारित अनुमोदनाके द्वारा श्रुति, स्मृति, स्तुति, समर्थना पूर्वक धर्मकी साधना करनी चाहिए । इनमेंसे कुछ भी न करके धर्मसे विमुख रहनेसे मनुष्यपर्याय, सुकुल, सुदेश, सुजाति आदिका पाना निरर्थक है ।।८८॥
- धर्म शब्दका अर्थ लोगोंसे ही जानकर उसका आचरण किया जा सकता है । तब उसके अर्थको बतलानेके लिए शास्त्ररचना करनेका श्रम उठाना बेकार है। ऐसा कहनेवाले को उत्तर देते हैं
जैसे लोकमें क्षीर शब्दसे विषतुल्य अर्क आदि रस और अमृततुल्य गोरस अर्थ लिया जाता है वैसे ही धर्म शब्दसे भी विषतुल्य दुर्गतिके दुःखको देनेवाला हिंसा आदि रूप अर्थ भी लिया जाता है और अमृततुल्य अहिंसा आदि रूप अर्थ भी लिया जाता है। इसलिए उसमें भेद बतलानेके लिए धर्म शब्दका उपदेश परम्परासे आगत अर्थ कहते हैं ॥८९॥
आगे धर्मशब्दका अर्थ स्पष्ट करते हैं____जीवकी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप विशुद्धिको धर्म कहते हैं। और मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र रूप संक्लेशपरिणामको अधर्म कहते हैं । वह अधर्म उस पुण्य-पापरूप बन्धका कारण है जिसका फल दुःखदायक संसार है । जीवकी
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