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धर्मामृत ( अनगार) अथ यथाकथंचित् पूर्वपुण्यमुदीर्ण स्वप्रयोक्तारमनुगृह्णातीत्याहप्रियान दूरेऽप्यञ्जनयति पुरो वा जनिजुषः,
" करोति स्वाधीनान् सखिवदथ तत्रैव दयते । ततस्तान्वानीय स्वयमपि तदुद्देशमथवा,
. नरं नीत्वा कामं रमयति पुरापुण्यमुदितम् ॥३९॥ पुरः-भोक्तुरुत्पत्तेः प्रागेव, जनिजुषः-उत्पन्नान्, दयति (-ते) रक्षति । ततः-दूरादेशात् । उक्त चार्षे
दीपान्तराद्दिशोऽप्यन्तादन्तरीपदपांनिधेः ।
विधिर्घटयतीष्टार्थमानीयात्नीपतां गतः ।। [ ] ॥३९।। चिन्तामणि रत्नको ग्रन्थकारने अपनी टीकामें रोहणपर्वत पर उत्पन्न होनेवाला रत्न विशेष कहा है। और कामधेनु कवि कल्पनामें देवलोककी गाय है। ये सभी पदार्थ माँगने पर इच्छित पदार्थोंको देते हैं। किन्तु बिना पुण्यके इनकी प्राप्ति नहीं होती है। अतः ये सब भी धर्मके ही दास हैं। धर्मसे ही प्राप्त होते हैं। यही बात कविवर भूधरदासजीने बारह भावनामें कही है।॥३८॥
आगे कहते हैं कि पूर्वकृत पुण्य उदयमें आकर अपने कर्ताका किसी न किसी रूपमें उपकार करता है
पूर्वमें किया हुआ पुण्य अपना फल देने में समर्थ होने पर दूरवर्ती प्रदेशमें भी स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे भोगने योग्य प्रिय पदार्थोंको उत्पन्न करता है। यदि वे प्रिय पदार्थ अपने भोक्ता की उत्पत्तिसे पहले ही उत्पन्न हो गये हों तो उन्हें उसके अधीन कर देता है । अथवा मित्रकी तरह वहाँ ही उनकी रक्षा करता है। और उन पदार्थों को दूर या निकट देशसे लाकर अथवा उस मनुष्यको स्वयं उन पदार्थों के प्रदेशमें ले जाकर यथेच्छ भोग कराता
है ।।३९॥
विशेषार्थ-यह कथन पुण्यकी महत्ता बतलानेके लिए किया गया है। पदार्थ तो अपने-अपने कारणके अनुसार स्वयं ही उत्पन्न होते हैं। तथापि जो पदार्थ उत्पन्न होकर जिस व्यक्तिके उपभोगमें आता है उसके कर्मको भी उसमें निमित्त कहा जाता है। यदि कम स्वयं कर्ता होकर बाह्य सामग्रीको उत्पन्न करे और मिलावे तब तो कर्मको चेतनपना और बलवानपना मानना होगा। किन्तु ऐसा नहीं है स्वाभाविक एक निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। जब कमेका उदय होता है तब आत्मा स्वयं ही विभाव रूप परिणमन करता ह तथा अन्य द्रव्य भी वैसे ही सम्बन्ध रूप होकर परिणमन करते हैं। जब पुण्य कर्मका उदयकाल आता है तब स्वयमेव उस कर्मके अनुभागके अनुसार कार्य बनते हैं, कर्म उन कार्योंको उत्पन्न नहीं करता। उसका उदयकाल आने पर कार्य बनता है ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। अघाति कर्मों में वेदनीयके उदयसे सुख-दुःखके बाह्यकारण उत्पन्न होते हैं। शरीरमें नीरोगता, बल आदि सुखके कारण है, भूख प्यास आदि दुःखके कारण हैं । बाहरमें इष्ट स्त्री पुत्रादि, सुहावने देश कालादि सुखके कारण हैं अनिष्ट स्त्री पुत्रादि असुहावने
१. जाँचै सुरतरु देय सुख, चिन्तै चिन्ता रैन ।
बिन जाँचै बिन चितये धरम सकल सुखदैन ।
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