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सूत्र ३६-४१
धर्म का माहात्म्य
धर्म-प्रमाना ३३
५०-७. संजमेणं मंते ! जीवे कि जगपद ?
प्र०-(७) भते ! संयम से जीव क्या प्राप्त करता है? उ.-संजमेणं अण्णहयत्तं जगयई।
उ.--संयम से जीव आश्रव का निरोध करता है ! १०-८. तवेग मंते ! जीवे कि जणय ?
प्र०-(८) मंते ! तर से जीव क्या प्राप्त करता है? १०-तवेणं वोबाणं जणयइ ।'
उ.-तप से वह व्यवदान--पूर्व-संचित कर्मों को क्षीण कर उत्त० अ० २६, सु० २८-२९ विशुद्धि को प्राप्त होता है । धम्ममाहप्पं --
धर्म का माहात्म्य -- ४०. एस धम्मे मुझे गितीइए सासए समेवच लोयं खेसहि पवे. ४०. यह धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। खेदज्ञ अहंन्तों ने बिते । तं जहा
नीय लोगः को सत्य प्रकार से जानकर इसका प्रतिपादन
उदिएसु वा, अणुट्ठिएमु वा, उठ्ठिएसु वा, अणुवट्ठिएमु वा, जो धर्माचरण के लिए उठे हैं अथवा अभी नहीं उठे हैं। जो स्वरसवंडेसु वा, अणुवरतवंडेसुवा, सोधिए पा अणुवाहिए धर्मश्रवण के लिए उपस्थित हुए हैं, या नहीं हुए हैं, जो जीवों को वा, संजोगरएम वा, असंजोगरएसु वा ।
मानसिक, वाचिक और कायिक) दण्ड देने से उपरत है, अथवा अनुपरत हैं, जो उपाधि से युक्त हैं अथवा उपाधि से रहित है, जो
संयोगों में रत हैं, अथवा संयोगों में रत नहीं है। सच्चं वेतं तहा चेतं अस्ति चेतं पच्चति ।
वह (अरिहन्त-प्ररूपित धर्म) तत्व-सत्व है, तथ्य है, (तथारूप
ही है) यह इसमें सम्यक् रूप से प्रतिपादित है । तं बादत्त न णिहे, ण णिमिखये, नाणितु धम्म जहा-तहा। साधक उस (धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु
मानी शक्तियों को) छिपाए नहीं और न ही उसे (आवेश में आकर) फेंके या छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, बस जानकर
(आजीवन उसका आचरण करे)। विद्वे हि गिडवेयं गच्छेज्जा ।
(इष्ट-अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय-विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे। जो लोगस्सेसणं चरे।
वह लोकषणा में न भटके । अस्स गरिध समा जातो, अण्णा तस्स को सिया?
जिस मुमुक्षु में यह (लोकषणा) बुद्धि नहीं है, उससे अन्य प्रवृत्ति कैसे होगी ? अथवा जिसमें सम्यवरव जाति नहीं है या
अहिंसा बुद्धि नहीं है उसमें विदेक बुद्धि कैसे होगी। विटु सुयं मया विण्णायं, जमेयं परिकहिज्जति ।
बह जो धर्म कहा जा रहा है वह दृष्ट; ध्रुत (सुना हुआ) मत
(माना हुआ) और विशेष रूप से ज्ञात (अनुभूत) है। समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाति पकप्पेति ।
हिंसा में रचे रहने वाले और उसी में लीन रहने वाले मनुष्य
बार-बार जन्म लेते रहते हैं। अहो य रातो य जतमाणो धीरे सया आगतपणाणे, पमते (सम्यग्दर्शन में) अहनिया यत्ल करने वाले, सतत प्रशावान्, बहिया पास, अपमत्ते सया परक्कमेन्जासि ।
और साधक उन्हें देख; जो प्रमत्त है. (धर्म से) बाहर हैं। इसलिए -आ. सु० १,०४, उ०१, सु० १३२-६३३ तु अप्रमत्त होकर (सम्यमय में पराक्रम कर) ऐसा मैं कहता हूँ। ४. मोही उन्चुयभूयस्स, धम्मो सुस्स चिदुई।
४१. जो ऋजुभूत (सरल) होता है, उसे शुद्धि प्राप्त होती है और निस्वागं परमं माई, घय-मित्त व्य पावए ।
जो शुद्ध होता है उसमें धर्म ठहरता है (जिसमें धर्म स्थिर है, यह चुत से सिक्त (सींची हुई) अग्नि की तरह परम निर्वाण (विशुद्ध आत्मदीप्ति) को प्राप्त होता है।
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१ (क) ए-त्याग के लिए देखिए ज्ञानाचार ।
(ख) बंभरवासे के लिए देखिए ब्रह्मचर्य महाबत ।
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