Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
- जैन धर्म का उद्गम और विकास
ऋषि-मुनि कहने से दोनों सम्प्रदायों का ग्रहण समझना चाहिये पीछे परस्पर इन सम्प्रदायों का खूब आदान-प्रदान हुआ और दूसरे का पर्यायवाची माना जाने लगा ।
दोनों शब्दों को प्रायः एक
१८
वैदिक साहित्य के यति और व्रात्य -
का भी उल्लेख बहुतायत से
परम्परा के ही
ऋग्वेद में मुनियों के अतिरिक्त' यतियों आया है । ये यति भी ब्राह्मण परम्परा के न होकर श्रमण साधु सिद्ध होते हैं, जिनके लिये यह संज्ञा समस्त जैन साहित्य में उपयुक्त होते हुए आजतक भी प्रचलित है । यद्यपि आदि में ऋषियों, मुनियों और यतियों के बीच ढारमेल पाया जाता है, और वे समान रूप से पूज्य माने जाते थे । किन्तु कुछ ही पश्चात् यतियों के प्रति वैदिक परम्परा में महान् रोष उत्पन्न होने के प्रमाण हमें ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं, जहाँ इन्द्र द्वारा यतियों को शालावृकों ( शृगालों व कुत्तों) द्वारा नुचवाये जाने का उल्लेख मिलता है (तैतरीय संहिता २, ४, ६, २, ६, २, ७, ५, ताण्ड्य ब्राह्मण १४, २, २८, १८, १, १ ) किन्तु इन्द्र के इस कार्य को देवों ने उचित नहीं समझा और उन्होंने इसके लिये इन्द्र का बहिष्कार भी किया (ऐतरेय ब्राह्मण ७, २८ ) । ताण्डय ब्राह्मण के टीका कारों ने यतियों का अर्थ किया है 'वेदविरुद्ध नियमोपेत, कर्मविरोधिजन, ज्योतिष्टोमावि अकृत्वा प्रकारान्तरेण वर्तमान' आदि, इन विशेषणों से उनकी श्रमण परम्परा स्पष्ट प्रमाणित हो जाती है । भगवतगीता में ऋषियों मुनियों और यतियों का स्वरूप भी बतलाया है, और उन्हें समान रूप से योग प्रवृत माना है । यहाँ मुनि को इन्द्रिय और मन का संयम करने वाला इच्छा, भय व क्रोध रदित मोक्षपरायण व सदा मुक्त के समान माना है ( भ० गी०५, १८) और यति को काम-क्रोध-रहित, संयत-चित्त व वीतराग कहा है (म० गी०५, २६, ८, ११ आदि ) अथर्ववेद के १५ वें अध्याय में व्रात्यों का वर्णन आया है । सामवेद के ताण्डय ब्राह्मण व लाट्यायन, कात्यायन व आपस्तंबीय श्रौतसूत्रों में व्रात्यस्तोमविधि द्वारा उन्हें शुद्ध कर वैदिक परम्परा में सम्मिलित करने का भी वर्णन है । ये व्रात्य वैदिक विधि से 'अदीक्षित व संस्कारहीन' थे, वे अदुरुक्त वाक्य को दुरुक्त रीति से, (वैदिक व संस्कृत नहीं, किन्तु अपने समय की प्राकृत भाषा ) बोलते थे,' वे 'ज्याहृद' ( प्रत्यंचा रहित धनुष ) धारण करते थे । मनुस्मृति ( १० अध्याय) में लिच्छवि, नाथ, मल आदि क्षत्रिय जातियों को व्रात्यों में गिनाया है । इन सब उल्लेखों पर सूक्ष्मता से विचार करने से इसमें सन्देह नहीं रहता कि ये व्रात्य भी श्रमण परम्परा के साधु व गृहस्थ थे, जो वेद-विरोधी होने से वैदिक अनुयायियों के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org