Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
900.00
तत्त्वका ऐसा उपदेश नहीं कहता है। अतः इस पुरुषको ही गुरुकी पदवी शोभायमान होती है, अन्यको शोभायमान नहीं होती। यह निःसंदेहरूपसे जानना।
आचार्य, उपाध्याय व मुनिराजका बाह्यरूप सभीका एक स्वरूप है। ऐसे आपके सामान्य स्वरूप संबंधित आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी बताते हैं कि
जो विरागी होकर, समस्त परिग्रहका त्याग करके, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके—अंतरंगमें तो उस शुद्धोपयोग द्वारा अपनेको आपरूप अनुभव करते हैं, परद्रव्यमें
अहंबुद्धि धारण नहीं करते, तथा अपने ज्ञानादिक स्वभाव ही को अपना मानते हैं, परभावोंमें - ममत्व नहीं करते, तथा जो परद्रव्य व उनके स्वभाव ज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं, उन्हें जानते
तो हैं, परन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष नहीं करते; शरीरकी अनेक अवस्थाएँ होती हैं, बाह्य नाना निमित्त बनते हैं, परन्तु वहाँ कुछ भी सुख-दुःख नहीं मानते; तथा अपने योग्य बाह्य क्रिया जैसे बनती है वैसे बनती है, खींचकर उनको नहीं करते; तथा अपने उपयोगको बहुत नहीं भ्रमाते हैं, उदासीन होकर निश्चलवृत्तिको धारण करते हैं; तथा कदाचित् मंदरागके उदयसे शुभोपयोग भी होता है-उससे जो शुद्धोपयोगके बाह्य साधन हैं, उनमें अनुराग करते हैं, परन्तु उस रागभावको हेय जानकर दूर करना चाहते हैं; तथा तीव्र कषायके उदयका अभाव होनेसे, हिंसादिरूप अशुभोपयोग परिणतिका तो अस्तित्व ही नहीं रहा है; तथा ऐसी अन्तरंग अवस्था होने पर बाह्य दिगम्बर सौम्यमुद्राधारी हुए हैं, शरीरका सँवारना आदि विक्रियाओंसे रहित हुए हैं, वनखण्डादिमें वास करते हैं, अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डित पालन करते हैं; बाईस परीषहोंको सहन करते हैं, बारह प्रकारके तपोंको आदरते हैं, कदाचित् ध्यानमुद्रा धारण करके प्रतिमावत् निश्चल होते हैं, कदाचित्
अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियाओंमें प्रवर्तते हैं, कदाचित् मुनिधर्मके सहकारी शरीरकी स्थितिके FAV हेतु, योग्य आहार-विहारादि क्रियाओंमें सावधान होते हैं।
___ ऐसे जैन मुनि हैं, उन सबकी ऐसी ही अवस्था होती है।
इसी भांति पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी आचार्यादिका सामान्य स्वरूप बताते | हुए कहते हैं कि
मुनिदशा होने पर सहज ही निर्ग्रन्थ दिगम्बरदशा हो जाती है। मुनिकी दशा तीनों काल नग्न दिगम्बर होती है। यह कोई पक्ष या सम्प्रदाय नहीं है, किन्तु अनादि सत्य वस्तुस्थिति है।
(10)