Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव
श्री जिनसेनस्वामी ( प्रथम )
अंतरमें आत्मस्वभावकी महिमाकी प्रचुरतामें लवलीन रहते हुए, पुरुषार्थकी कमजोरीसे आँखके टिमकार मात्र, स्वरूपसे उपयोग बाहर आने पर, करुणासे महान शास्त्रोंके रचयिता होने पर भी, स्वयं अपनी महानताके बारेमें कुछ भी नहीं लिखनेवाले व बाह्यरूपसे जंगलमें रहते आचार्य जिनसेनस्वामी ( प्रथम ) पर जैन समाज बहुत आदरसे समर्पित है। इस हेतु आपकी अद्वितीय ऐतिहासिक रचना 'हरिवंशपुराण' एक ही पर्याप्त है।
आचार्यवर जिनसेनस्वामी ( प्रथम ) पुन्नाट संघके आचार्य थे । 'पुन्नाट' शब्द कर्णाटकी होनेसे वे दक्षिण प्रांतके होनेका अनुमान है। आपके गुरुका नाम कीर्तिषेण था। आपने हरिवंशपुराण में यह रचना कहाँ बैठकर लिखी है, उसका तत्कालीन इतिहास लिखा है, उससे ज्ञात होता है, कि आप विहार प्रिय थे। गिरनार यात्रा हेतु गुजरात राज्यके सौराष्ट्रदेश स्थित सुवर्णसे बढ़नेवाली विपुल लक्ष्मीसे संपन्न अत्यंत समृद्ध वर्द्धमानपुरी ( वढ़वाण - पूज्य बहिन श्रीका जन्मस्थल) आये । — उस वढ़वाणको आपने पावन किया था, क्योंकि आपने इस हरिवंशपुराणका प्रारंभ वढ़वाणके नत्रराज बसदि नामसे प्रसिद्ध पार्श्वनाथ जिनालयमें किया था व उसकी पूर्णता गिरनारसे आते समय रास्तेमें 'दोस्तटिका' के शांतिनाथ भगवान जिनमंदिरमें की थी । इतिहासविदोंको अन्य प्रमाणोंसे ज्ञात होता है, कि उस समय 'दोस्तटिका' कि, जो गिरनार जाते समय मार्गमें आता वर्तमानका 'दोत्तड़िड' ही है । उस शास्त्रका अधिकांश भाग 'दोस्तटीका' में रचा गया हो ऐसा मानना है ।
इतिहाससे यह भी पता चलता है, कि आप कर्णाटकसे अपनी गुरु परम्पराके आचार्य अमितसेनजीके साथ ससंघ गिरनार वन्दनार्थ पधारे थे ।
कुछ इतिहासकार 'वर्द्धमानपुरी' का होना मध्यप्रदेशके धार जिलेके 'बदनावर' को मानते हैं। यदि ऐसा हो तो आपका विहार मालवाके उधर रहा होना माना जाता है, पर वह गिरनार यात्राके साथ सुसंगत नहीं है। जो भी हो, इतना स्पष्ट है, कि यह ग्रंथ विहारकालमें पार्श्वनाथजिनमंदिरमें रचा गया था । अधिकांश इतिहासकार 'वर्द्धमानपुरी' को सौराष्ट्रका वढ़वाण ही मानते हैं ।
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