Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 231
________________ गहन अध्ययन किया। (उससे पूर्व उन्होंने कुल-परम्परासे मिले श्वेताम्बर, स्थानकवासी ग्रंथोंका गहन अभ्यास किया था, पर जिसकी उन्हें चाह थी, वह उनमें उन्हें नहीं मिला।) दिगम्बर आचार्योंकृत सभी ग्रंथोंसे वे अपनी परिणतिको निर्मल बनाते तो थे ही, साथमें उन्होंने उन विविध दिगम्बर ग्रंथोंमेंसे किन्हीं ग्रंथ पर एक बार व किन्हीं ग्रंथ पर अनेकबार 7 मुमुक्षुसभामें प्रवचन दिये। सीमंधर भगवानका आशीष प्राप्त पूज्य गुरुदेवने भगवत् कुंदकुंदाचार्यदेवके पंच परमागमोंके न्यायोंकी तो मूसलधार वर्षा बरसाकर समस्त दिगम्बर शासन पर व मुख्यरूपसे मुमुक्षु समाज पर असीम उपकार किया है। अभी भी टेप-प्रवचनों द्वारा भाग्यशाली मुमुक्षुओं पर अद्भुत कृपा कर रहे हैं। उनके उपकारछायामें मुमुक्षुगण अपने-अपने पुरुषार्थ व परिणति अनुसार अपना जीवनपंथ उज्ज्वल कर रहे हैं। इस भांति श्रुतज्ञानकी जो परम्परा भगवान महावीरसे शुरू होती हुई, उक्त विविध । आचार्योंके माध्यमसे परमकृपालु सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी को मिली। उन्होंने अपने अनुभव बलसे बहुश्रुतपरम्पराको नवपल्लवित करके अनहद प्रभावना की। यह सब उपकार आचार्यवर आपका, आपके ग्रंथोंका व उनके पावन प्रतापसे परमकृपालु श्री कहानगुरुदेवका है। जिनसे यह ज्ञानप्रवाह अभी तक अक्षुण्णधारासे बह रहा है। हे आचार्य भगवंत ! आपके ग्रंथ ! व हे कहानगुरुदेव ! आपके ऐसे असीम उपकारोंसे नम्रीभूत हो, हम आपको कोटि कोटि वंदना करते हैं। ___ परम पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीकी शीतल छायामें—जिन्हें पूज्य गुरुदेवश्री 'इस कालका आश्चर्य', 'आराधनाकी देवी', 'भगवती' आदि विविध उपमाओंसे अलंकृत करते थे, ऐसे—प्रशममूर्ति भगवती बहिनश्री चंपाबेनने भी अपने अद्भुत ज्ञान-वैराग्य-पूजा-भक्तिधर्मचर्चाओं द्वारा तथा जिनायतनोंमें दिगम्बर आचार्य भगवंतों व साधकोंकी चित्रावलीयों द्वारा मुमुक्षुजीवोंके हृदयमें आचार्यों आदि प्रति भक्तिभाव जागृत कर अनुपम उपकार किया है। ____ अंतमें, फिरसे इस भांति आचार्यदेव आपको, आपके ग्रंथोको, पूज्य कहान गुरुदेवश्रीको व पूज्य बहिनश्रीको-भगवान महावीर की इस ज्ञानगंगाको अक्षुण्ण बनाये रखनेके लिए कोटि-कोटि वंदना करते हैं। गणनातीत तुझ उपकार, मुझ अणु अणुए रे..... शब्दोंथी केम कथाय ! नमुं नमुं भावे रे.... (214)

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