Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव
श्री पद्मनंदि (द्वितीय)
आप 'जम्बूद्वीपण्णत्ति' के रचयिता आचार्य पद्मनंदिदेवके पश्चात् हुए हैं, अतः अलग ही हैं। आपके बारेमें विशेष कोई जानकारी नहीं मिलती है, पर आप अपने 'पद्मनंदि पञ्चविंशतिका' ग्रन्थसे समाजमें बहुत ही परिचित हैं । आपके ग्रन्थको श्रीमद् राजचंद्रजीने 'वनशास्त्र' कहकर, इस ग्रंथकी भूरि भूरि प्रशंसा की थी। पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीने आपके इस ग्रंथको आत्मसात् ही नहीं, पर उसके कई अधिकारों पर यथावसर सभामें प्रवचन भी दिये थे।
आपके दीक्षागुरुका नाम आचार्य वीरनन्दि था, पर वे 'जम्बूद्वीप पण्णत्ति' के रचयिता आचार्य पद्मनन्दि के दादागुरु वीरनन्दि आचार्यसे भिन्न थे।
आपके ग्रन्थकी भाषा परसे ज्ञात होता है, कि आप प्राकृत व संस्कृत दोनोंके ज्ञाता थे। आपके ग्रन्थसे यह भी ज्ञात होता है, कि आपको पूर्वाचार्य, आचार्य अमृतचंद्रदेव, आचार्य अमितगति, आचार्य सोमदेव, आचार्य प्रभाचन्द्र आचार्य गुणभद्रजी आदि अनेक आचार्योंके ग्रंथोंका ज्ञान था। इतना ही नहीं, उनके कई मर्म भरे कथनोंको आपने अपने ग्रंथके अवयव बना लिये हैं ।
इतना ही नहीं, आपका ग्रंथ इतना सुन्दर व अनूठा बना है, कि आपके पश्चात्वर्ती आचार्योंने आपके ग्रंथके कई कथन अपने ग्रंथ रचनामें अपनाये हैं।
यद्यपि इस ग्रंथ में २६ अधिकार होने पर भी उसका नाम 'पद्मनंदि पञ्चविंशतिका' ही रखा है।
आपने अपने अनूठा एक मात्र 'पद्मनंदीपञ्चविंशतिका ग्रंथ' रचा है। 'चरणसार ' ( प्राकृत) भी आपकी रचना मानी जाती है।
आप ईसाकी ११वीं शताब्दीके उत्तरार्द्धके आचार्य हैं।
'पद्मनंदिपंचविंशतिका' ग्रंथके रचयिता आचार्य पद्मनंदि (द्वितीय) को कोटि कोटि वंदन ।
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