Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 224
________________ भगवान श्री पद्मप्रभमलधारीदेव मुनिवर आप भगवान आचार्य कुंदकुंददेवजीके 'नियमसार' ग्रंथकी टीका लिखनेवाले परम अध्यात्मिक निर्ग्रन्थ मुनि भगवंत थे। आपका नाम ‘पद्मप्रभ' था। 'मलधारी' शब्द मुनीन्द्र भगवन्तके लिए दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों आम्नायमें प्रचलित है। अतः आप महामुनीन्द्र भगवंत थे। आपने स्वयंको सुकविजन पयोजमित्र, पञ्चेन्द्रियप्रसरवर्जित व गात्रमात्र परिग्रही बताया है। आपके गुरुका नाम श्री वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीदेव था। मद्रास प्रान्तके 'पटशिवपुरम्' ग्रामके शिलालेखानुसार माण्डलिक त्रिभुवनमल भोजदेव चोल्ल, हेजरा नगर पर राज्य कर रहे थे, तब वहाँ एक जिनमंदिर बनवाया गया था। उस समय मुनीन्द्र पद्मप्रभलधारीदेव व उनके गुरु वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्तीदेव वहाँ विद्यमान थे। इस परसे अनुमान है, कि आप दक्षिणके मुनीन्द्र भगवंत थे। आपने अपनी टीकामें अध्यात्मके गहन गम्भीर भाव भरे हैं। उसमें दर्शाया है, कि 'मोक्ष व मोक्षमार्गका आश्रयरूप कारण (बीज) निजात्मस्वभाव प्रत्येक आत्मामें ये वर्तमानमें ही विद्यमान है; उसकी दृष्टि, महत्ता, मूल्य, ज्ञान, श्रद्धान, आचरणमें नहीं लाकर; पर, कर्म व वर्तमान स्वपर्याय जितना ही स्वयम्का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करनेसे प्रत्येक जीव संसारमें दुःखी हो रहा है'। आपका परिचय देते हुए नियमसार टीकाकी प्रस्तावनामें बताया है, कि-आपने भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके हृदयमें रहे परम गहन अध्यात्मिक भावोंको अपने अन्तरवेदनके साथ मिलाकर, इस नियमसार ग्रंथकी टीकाकी रचना की है। इस ग्रंथमें आये हुए कलशरूप काव्य अतिशय मधुर हैं। साथमें वे अध्यात्म-मस्ती व भक्तिरससे भरपूर हैं। अध्यात्मकविके रूपमें श्री पद्मप्रभमलधारीदेवका स्थान जैन साहित्यमें अति उच्च है। टीकाकार मुनिराजने गद्य व पद्यके रूपमें परम पारिणामिकभावको तो बहुत ही गाया है। सम्पूर्ण टीका मानों, कि परमपारिणामिक-भावका और तदाश्रितमुनिदशाका एक महाकाव्य हो इस भांति मुमुक्षुहृदयको (207)

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