Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भयसे गुरुके प्रति अनन्य श्रद्धाके वशीभूत हो कह दिया, कि 'मेरे गुरु कुष्टरोगी नहीं हैं'। सेठजीको राज्यसभामें उनके गुरुको कुष्टरोग होनेके वे शब्द बहुत अखरे और सरासर झूठ जान पड़े क्योंकि उन्हें गुरु वादिराज कभी कुष्टरोगीके रूपमें लक्ष्यगत ही नहीं हुए थे। उन्होंने तो मात्र भक्त बनकर, अपने गुरुमें सर्व समर्पणभावसे 'गुरुरूप' ही देखा था। ठीक ही है, 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी'। इसलिए राजाके पूछने पर सेठजीने स्पष्ट कह दिया कि 'मेरे गुरु कुष्टरोगी नहीं हैं'। इस पर वाद-विवाद हुआ और अन्तमें राजाने स्वयं ही परीक्षा करनेका निश्चय किया। अतः भक्त-सेठ घबराया हुआ, आचार्य वादिराजजीके पास पहुंचा और समस्त घटना सुनाई। आपने आश्वासन देते हुए कहा, कि 'धर्मके प्रतापसे सब ठीक होगा, चिन्ता मत करो' । उस समय आपने एकीभावस्तोत्रकी रचना करते हुए, भगवानकी बहुत ही भावसे स्तुति की, ऐसे शुद्धिपूर्वक शुभभावसे व पूर्व
राजा, सभासद व सेठ सह आचार्य वादिराजजीके दर्शन करते हुए व आचार्य द्वारा कुष्टरोग जानेके बारेमें कहते हुए
पुण्यसे आपका कुष्ठरोग दूर हो गया। कुष्टरोगके संबंधमें राजाको चुगली खानेवालेको, राजाकी ओरसे दंड ना हो, अतः पाँवमें कुछ कुष्ठ रहने दिया। राजाने हकीकत जानी, तब राजा सहित नगरके सर्व लोगोंने जिनधर्म अंगीकार कर लिया।
आपकी १. पार्श्वनाथ चरित, २. यशोधर चरित, ३. एकीभावस्तोत्र, 20 ४. न्यायविनिश्चयविवरण, ५. प्रमाण निर्णय रचनाएँ हैं।
आप ई.स. १०१०-१०६५ के आचार्य भगवंत थे। 'एकीभावस्तोत्र'के रचयिता आचार्य वादिराजसूरि भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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