Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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विद्वानोंका मत है, कि आप ब्रह्मचर्यमें अड़िग होनेसे आपको 'ब्रह्म' नामक उपाधि मिली थी। आप बाल ब्रह्मचारी थे और देवजी आपका नाम था । कई विद्वान आपका नाम 'ब्रह्मदेवजी ' मानते हैं, 'देवजी' नहीं । आपने बृहद् द्रव्यसंग्रहकी टीका लिखी है, उसमें लिखा है, कि 'पहले भगवान नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव द्वारा सोमनामके राजश्रेष्ठिके निमित्त मालवदेशके आश्रमनामक नगरके मुनिसुव्रत चैत्यालयमें २५ गाथात्मक द्रव्यसंग्रहके लघुरूपमें रचे जाने और बादमें विशेष तत्त्वपरिज्ञानार्थ उन्हीं आचार्य नेमिचन्द्रके द्वारा बृहद्रव्यसंग्रहकी रचना हुई। उस बृहद्द्रव्यसंग्रहके अधिकारोंके विभाजनपूर्वक यह वृत्ति आरम्भ की जाती है'। साथमें यह भी सूचित किया है, कि उस समय आश्रम नामका यह नगर महामण्डलेश्वर अधिकारमें था और सोम नामका राजश्रेष्ठि भाण्डागार आदि अनेक नियोगोंका अधिकारी होनेके साथ-साथ तत्त्वज्ञानरूप सुधारसका पिपासु था' ।
इस परसे विद्वान अनुमान करते हैं, कि पूर्वमें उल्लखित सभी घटनाएँ उनके सामने घटी हैं। अतः भगवान नेमिचन्द्र सिद्धान्तिकदेव, ब्रह्मदेवजी व राजा भोज सम-सामयिक थे । द्रव्यसंग्रहके इन टीकांशोंसे स्पष्ट ज्ञात होता है, कि द्रव्यसंग्रह व उसकी टीकाकी रचना - दोनों राजा भोजके कालमें रची गई थी।
आपने अपनी टीकाओंमें अनेक आचार्योंके ग्रन्थोंके उद्धरण आधाररूपसे दिये हैं। जिससे यह स्पष्ट होता है, कि आप बहु श्रुताभ्यासी तो थे ही, पर चारों अनुयोगके 20 ज्ञाता भी थे, क्योंकि आपने अपने ग्रंथमें चारों अनुयोगके शास्त्रोंका प्रमाण दिया है।
आपने (१) बृहद् द्रव्यसंग्रह टीका, (२) परमात्मप्रकाश टीका, (३) कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, (४) तत्त्व दीपक, (५) ज्ञानदीपक, (६) प्रतिष्ठातिलक, (७) कथाकोष ग्रंथोंकी रचना की है।
आपका समय भोजके समयके करीब होनेसे, ईसाकी ११वीं शताब्दीके अन्तिम पाद होना माना जाता है। वह श्री जयसेनाचार्यजी ( सप्तम् ) के निकट पूर्ववर्ती समय ही गिनना चाहिए।
'बृहद् द्रव्यसंग्रह टीका' के रचयिता आचार्य ब्रह्मदेवजीको कोटि कोटि वंदन ।
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