Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 220
________________ शिष्योंको मोक्षमार्गका संबोधन करते हुए आचार्य जयसेनजी (सप्तम) आपने अपने गुरु परम्पराके बारेमें लिखा है, कि मूलसंघके निर्ग्रन्थ तपस्वी श्री वीरसेनाचार्य हुए, उनके शिष्य अनेक गुणोंके धारी आचार्य सोमसेन हुए और उनका शिष्य यह जयसेन हुआ है। इससे ज्ञात होता है, कि आचार्य सोमसेनजी आपके दीक्षागुरु होंगे, क्योंकि आपने आगे श्रीमान् त्रिभुवनचन्द्र गुरुको भी नमस्कार किया है। अतः श्री त्रिभुवनचन्द्राचार्य आपके विद्यागुरु होंगे। आप सेन गणान्वयी आचार्य अवश्य हैं—ऐसा स्पष्ट है। आपने भगवान आचार्य कुंदकुंदस्वामीके समयसार, प्रवचनसार व पंचास्तिकाय आदि तीन शास्त्रोंकी टीका की है। आपने इन टीकाओंमेसे समयसारकी टीका विस्ताररुचि शिष्यके लिए, प्रवचनसारकी टीका मध्यमरुचि शिष्यके लिए व पंचास्तिकायसंग्रहकी टीका संक्षेप रुचि शिष्यके लिए बनाई है। आपकी तीनों टीकाओंका नाम 'तात्पर्यवृत्ति' है। आपका समय ई.सन्की ११वीं शताब्दिका उत्तरार्ध या १२वीं शताब्दिका पूर्वार्ध माना जाता है। आचार्य श्री जयसेनजी (सप्तम्)को कोटि कोटि वंदन । (203) CIAN

Loading...

Page Navigation
1 ... 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242