Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 219
________________ भगवान आचार्यदेव श्री जयसेनजी (सप्तम् ) भगवान कुंदकुंदाचार्यके अध्यात्म साहित्य समयसारको जैसा श्री अमृतचंद्राचार्यदेवने द्रव्यदृष्टिप्रधान शैलीसे संजोया है, उसी भाँति आपने उसी ग्रंथको चारित्रप्रधान शैलीसे संजोया है। इसी भाँति श्री अमृतचंद्राचार्यदेवने प्रवचनसार ज्ञानप्रधान शैलीसे टीका की, तो आपने उस ही ग्रंथकी चारित्रप्रधानशैलीसे टीका की। आप भगवान अमृतचंद्राचार्यके पश्चात्वर्ती आचार्य थे, भगवत् कुंदकुंदाचार्यदेवके जिन ग्रंथोंकी अमृतचंद्राचार्यदेवने टीका की, आपने भी उन्हीं ग्रन्थों पर टीका की। वे टीकाएँ उसी शैलीसे करनेका कोई हेतु नहीं रहता। अतः आपने उन्हीं ग्रन्थोंकी अन्य शैलीसे टीका की । आपके ग्रन्थमें आपने अक्सर शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ व भावार्थ निकालकर सभी गाथाओंकी टीका की है। इस शैलीसे सभी जीवोंको यथासम्भव सर्व जगह अर्थ करनेको आप कहते हैं, जिससे आगमके आलोकमें वक्ताका यथार्थ आशय स्पष्ट हो। आपने आगमार्थक लिए कई शास्त्रोंको प्रमाणरूपसे पेश किये हैं, जिससे स्पष्ट होता है, कि आप बहुश्रुताभ्यासी आचार्य थे। आपकी रचनाका आपके पश्चात्वर्ती आचार्योने खूब उपयोग किया है। ____ आपके सम्बन्धमें आपने स्वयं बताया है, कि 'सदाधर्ममें रत प्रसिद्ध मालु नामक साधु हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है। उनसे यह चारूभट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ है, जो सर्वज्ञ परमात्मा व आचार्योंकी आराधनापूर्वक सेवा किया करता है। उस चारूभट अर्थात् आचार्य जयसेनजीने अपने पिताकी भक्तिके विलोप होनेसे भयभीत हो, इस प्राभृत नामक ग्रंथकी टीका रची है'। जिससे ज्ञात होता है, कि आपका गृहस्थदशाका नाम चारुभट्ट था व पिता महिपति साधु व दादा मालु साधु थे। वे सभी मुनिदीक्षाधारी होंगेऐसा अनुमान हो सकता है, तब ही आपने उनके लिए साधु शब्दका प्रयोग किया है। इस बातसे यह भी ज्ञात होता है, कि आपके पिताकी भावनावश प्रवचनसार ग्रंथकी टीका या तीनों प्राभृतोंकी टीका की है। ऐसी प्रशस्ति आपने अन्य दो (समयसार और पंचास्तिकाय) ग्रंथोंकी टीकामें नहीं लिखी है। (202)

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