Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
आपके साहित्यमें आते आचार्यवरोंके नाम जैसे आचार्यवर समंतभद्र, सिद्धसेन, देवनंदी (पूज्यपादस्वामी), वज्रसूरि, रविषेण, जटासिंहनंदी, शांत, कुमारसेन आदि परसे प्रतीत होता है, कि आपने अपने पूर्ववर्ती आचार्योंको बड़े भावसे स्मरण किया है, इससे लगता है, कि आप काफ़ी शास्त्रविद् भी थे। साथ-साथमें आपने आचार्यवर वीरसेनस्वामी व जिनसेनस्वामी (द्वितीय)की भी प्रशंसा की है। जो ई.स. ९वीं शतीके आचार्य थे। इस परसे ज्ञात होता है, कि आपका काल ९वीं शतीके पूर्वार्ध तक होनेसे आप (धवला, जयधवला आदिके रचयिता) आचार्यवर वीरसेनस्वामी व (गुरुकी अधूरी टीकाको पूर्ण करनेवाले और आदिपुराणके रचयिता) आचार्यवर जिनसेनस्वामी (द्वितीय)के विशाल ज्ञानसे भली-भांति परिचित ही नहीं, पर उनके गहन ज्ञानके यत्किंचित् (चर्या आदि द्वारा) रसास्वादी भी हुए हों। तदुपरांत तत्त्वार्थसूत्र, तिलोयपण्णति, राजवार्तिक आदि शास्त्रोंके अनुरूप ही कथन हरिवंशपुराणमें होनेसे आप उन शास्त्रोंके पारगामी थे, यह प्रतीत होता है। आपने एक मात्र 'हरिवंशपुराण' ग्रंथकी रचना की है। जो अपने आपमें एक अद्वितीय पुराण है।
'हरिवंशपुराण'की रचनाकाल शक संवत ७०५ अर्थात् वि.सं. ८४० (ई.स. ७८४) प्राप्त होता है। अतः आप ई.स. ७४८ से ८१८के आचार्यवर हो, ऐसा इतिहासविदोंका मानना है।
हरिवंशपुराणके रचयिता आचार्यदेव जिनसेनस्वामी(प्रथम)को कोटि कोटि वंदन।
(131)