Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव
श्री अमृतचन्द्रदेव
भगवान आचार्य कुन्दकुन्दके समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकायके आद्य टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्रके नामसे प्रायः सभी अध्यात्मरसिक सुपरिचित हैं । यद्यपि जैन अध्यात्मके पुरस्कर्त्ता श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव हुए; किन्तु अध्यात्मकी सरिता प्रवाहित करनेका श्रेय आचार्य अमृतचन्द्रजीको ही प्राप्त है ।
आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्रके मध्यमें लगभग एक हजार वर्षोंका अन्तराल है और इस अन्तरालमें प्रख्यात जैनाचार्य हुए हैं । उनमेंसे आचार्य पूज्यपाद तो भगवान कुन्दकुन्दसे प्रभावित हैं। उनके समाधितंत्र और इष्टोपदेश पर भगवान आचार्य कुन्दकुन्दके पाहुडोंका प्रभाव है। सर्वार्थसिद्धि टीकामें भी पंचपरावर्तन सम्बन्धी पाँच गाथाएँ भगवान आचार्य कुन्दकुन्द बारस अणुवेक्खा संगृहित हैं। आचार्य अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिकमें प्रवचनसारसे एक गाथा उद्धृत की है। आचार्य विद्यानन्दजीने अपनी अष्टसहस्रीमें पञ्चास्तिकायकी गाथा 'सत्ता' आदिका संस्कृत रूपान्तर दिया है । किन्तु भगवान आचार्य कुन्दकुन्दजीके मौलिक ग्रन्थ समयसारको किसीने स्पर्श नहीं किया। यह श्रेय तो आचार्य अमृतचन्द्रजी को ही प्राप्त है। उन्होंने ही सर्वप्रथम उसका मूल्याङ्कन किया और ऐसा किया कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव जैनाकाशमें सूर्यकी तरह प्रकाशित हो गये। आचार्य कुन्दकुन्ददेवको कुन्दनवत् प्रकट करनेका श्रेय आचार्य अमृतचन्द्रजीको ही है । अतः उनकी वाणीके प्रकटन और प्रसारमें जो स्थिति भगवान् महावीर और गौतम गणधर की है, वही स्थिति जैन अध्यात्मके प्रकटन और प्रसारमें आचार्य कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्रकी है । जैसे भगवान् महावीरकी वाणीको द्वादशाङ्ग श्रुतमें गौतम गणधरदेवने निबद्ध करके प्रवाहित किया। उसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दके द्वारा पुरस्कृत अध्यात्मको अपनी टीकाओं द्वारा आचार्य अमृतचन्द्रने निबद्ध और प्रवाहित किया। उनके पश्चात् ही अन्य टीकाकारोंने भी उन पर अपनी टीका रची ।
इस तरह अध्यात्मरूपी कमलका सौरभ फैलाकर भी, आचार्य अमृतचन्द्र अपने सम्बन्ध में मूक हैं। उन्होंने अपनी कृतियोंमें अपना नामोल्लेख मात्र किया है । समयसार और पञ्चास्तिकायकी टीकाके अन्तमें वे लिखते हैं
'स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैर्व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति कर्तृव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ॥'
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