Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव
श्री अमितगति (प्रथम)
भगवान महावीरके आम्नायमें एक नामके दो अमितगति आचार्य हुए हैं, इतना ही नहीं, दोनोंका समय भी अत्यंत नज़दीक है अर्थात् दोनोंके बीच दो पीढ़ीका ही फ़रक है । अतः भ्रम होनेका संभव रहता है, कि मानों दोनों एक ही अमितगति न हो । अतः इतिहासकारोंको दोनोंका भेद निर्णित करना जरूरी रहा।
आचार्य अमितगति (प्रथम), आचार्य देवसेनके शिष्य थे। आचार्य अमितगति ( प्रथम ) के शिष्य नेमिषेण व उनके शिष्य माधवसेन व उनके शिष्य आचार्य अमितगति (द्वितीय) थे । अमितगति आचार्य ( प्रथम ) के, एक विशेष प्रकारका विशेषण लगाया जाता है ' त्यक्तनिः शेषसंग' ' – यह विशेषण आचार्य अमितगति (द्वितीय) ने स्वयं ही आचार्य अमितगति ( प्रथम ) के लिए दिया है, जो स्वयं आचार्य अमितगति ( प्रथम ) भी यह विशेषण अपने साथ लगाते थे । इस भांति आचार्य अमितगति (द्वितीय) ने अपनेको सम्माननिय आचार्य अमितगति ( प्रथम ) से भिन्न बताया है ।
आपकी सर्वोत्तम कृति ‘योगसार - प्राभृत' है, कि जो अध्यात्म - रस प्रचुर है । इस ग्रंथमें आपने स्वयंके लिए 'निसङ्गात्मा' यह विशेषण लगाया होनेसे, उपरोक्त विशेषणसा ही यह विशेषण होनेसे स्पष्ट होता है, कि योगसार - प्राभृत आपका ही ग्रंथ है ।
महिमा थी, वह आपके
आपको अपने गुरु आचार्य देवसेनकी असीम 'सुभाषितरत्नसंदोह' के एक श्लोकसे सिद्ध होती है।
आपके बारेमें इससे विशेष कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती ।
आपके जीवनकी मुख्य रचना 'योगसार - प्राभृत' ही है । आपका काल ९२३ - ९६३के अन्तर्गत होना निश्चित होता है।
'सुभाषितरत्नसंदोह ' के रचयिता आचार्य अमितगतिदेव ( प्रथम ) को कोटि कोटि वंदन ।
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