Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 178
________________ है। अति संक्षेपमें गंभीर रहस्योंको रखदेनेकी आपकी शक्ति विद्वानोंको आश्चर्यचकित करती है। आपकी दैवी टीकाएँ श्रुतकेवलीके वचनों जैसी है। जैसे मूल शास्त्रकारके शास्त्र, अनुभव, युक्ति आदि समस्त समृद्धिसे समृद्ध हैं, वैसे टीकाकारकी टीकाएँ भी उन-उन सर्व समृद्धिसे विभूषित हैं। शासनमान्य भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवने इस कलिकालमें जगद्गुरु तीर्थंकरदेव जैसा कार्य किया है और अमृतचंद्राचार्यदेवने मानों वे कुंदकुंदाचार्यके हृदयको स्पर्श करते हों उस तरह उनके गंभीर आशयोंको यथार्थरूपसे व्यक्त करके उनके गणधर जैसा कार्य किया है। इससे स्पष्ट है कि आचार्यदेव परमागमके गहरे अभ्यासी थे और उनको उसके प्रति अगाध श्रद्धा और भक्ति थी।। ऐसे प्रामाणिक ग्रन्थकारकी रचनाओंके सम्बन्धमें अन्यथा कल्पना करना सूरज पर धूल फेंकने जैसा है! ___ पञ्चास्तिकायकी टीकाके प्रारम्भमें वे उसकी व्याख्याको 'द्विनयाश्रया' —दो नयोंका आश्रय करनेवाली कहते हैं।। इस प्रकार जिनागमकी व्याख्या दो नयोंके आश्रय लेकर करनेवाले वे ही आद्य टीकाकार हैं ।। उन्हींका प्रभाव उनके पश्चात् होनेवाले आध्यात्मिक टीकाकारों और ग्रन्थकारोंमें देखनेमें आता है ।। इस प्रकार वे इस आध्यात्मिक युगके स्रष्टा हुए हैं। भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवके प्राभृतत्रयके अन्य टीकाकार श्री जयसेनाचार्यदेवने अपनी टीकाओंमें अनेक स्थान पर श्री अमृतचंद्रचार्यदेवकी टीकाओंका बहुत आदर सह स्मरण किया है। __ हमारे परमोपकारी पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी अपने परमागम समयसारके प्रवचनोंमें श्री अमृतचंद्राचार्यदेव व उनकी आत्मख्याति टीकाकी भूरी-भूरी प्रशंसा करते फरमाते हैं, कि यह टीका पंचमकालमें व भरतक्षेत्रमें अजोड़ है। पूज्य गुरुदेवश्रीने टीका सहित समयसार ग्रंथ पर शुरुसे अन्त तक १९ बार सभामें प्रवचन किये थे, तद्उपरांत आपके अन्य ग्रंथों व पुरुषार्थसिद्धिउपाय ग्रंथ पर भी उन्होंने कई बार प्रवचन किये थे। आपकी प्रसिद्ध रचनाएँ १. समयसारकी आत्मख्याति टीका, २. प्रवचनसारकी तत्त्वदीपिका टीका, ३. पञ्चास्तिकायसंग्रहकी समयव्याख्या टीका, ४. पुरुषार्थसिद्धिउपाय, ५. तत्त्वार्थसार, ६. लघुतत्त्वस्फोट ।। इसमें प्रथम ३ टीका ग्रंथ हैं, व अन्तिम ३ आचार्यदेवकी मौलिक रचनाएँ हैं।। आचार्य अमृतचन्द्रजीका समय विक्रमकी दसवीं शताब्दी (ई. स. ९०५-९५५) है।। ऐसे महान आचार्यदेवको अनहद श्रद्धा व भक्ति हृदयसे कोटि-कोटि वंदन ।। (161)

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