Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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भगवान आचार्यदेव
श्री (बृहद् ) अनन्तवीर्य
दिगम्बर परम्परामें अनन्तवीर्य नामक कई आचार्य हुए हैं, उनमें भगवान अकलंकस्वामी रचित 'सिद्धिविनिश्चय' की बृहद् टीका रचयिता आचार्य अनन्तवीर्य स्वयं अपने आपमें एक हैं। ऐसा बताया जाता है, कि आप देवकीर्ति पण्डितके गुरु व गौणसेन पण्डितके शिष्य व श्रीपालके सधर्मा थे। फिर भी आपके गुरुका नाम 'रविभद्रजी' जान पड़ता है व आचार्य वादिराजके आप दादागुरु थे। आपने स्वयंने शायद अपने गुरुके नामसे ही स्वयंको 'रविन्द्रपादोपजीवी' बताया है। आचार्य अनन्तवीर्य द्रविड संघके नन्दिगणके उरुङ्गलान्वयीकी परम्पराके श्रवणबेलगोलावासी आचार्य थे ।
'गरुड़-लान्वयी' आचार्य वादिराजजीने आ. अनन्तवीर्यकी स्तुति करते हुए कहा है, कि ‘आपके वचनरूपी अमृतदृष्टिसे जगतको चाटजानेवाला शून्यवादरूपी हूताशन शान्त हो गया था' । इतना ही नहीं, आचार्यदेव वादिराजजीने आपको उस 'दीपशिखा समान' बताया है, कि जो भगवान आचार्य अकलंक वाङ्मयके गूढ़ और अगाध पदोंका अर्थ पद-पद पर प्रकाशित करता है।
आचार्यदेव अनन्तवीर्यजी न्यायशास्त्रके पारंगत और अनेक शास्त्रोंके मर्मज्ञ थे । आपकी “सिद्धिविनिश्चय'की टीकासे ज्ञात होता है, कि आपका दर्शन - शास्त्रीय अध्ययन बहुत ही व्यापक और सर्वतोमुखी था। आपको वैदिक संहिताओं, उपनिषद, उनके भाष्य एवं वार्ता आदिका भी गहरा अध्ययन था। आप न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक, चार्वाक, बौद्ध आदि अन्य मतोंके भी असाधारण विद्वान थे ।
इतिहासकारोंनुसार यह मानना है, कि भगवान अकलंकस्वामीके 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथकी विस्तृत टीका लिखते समय, आचार्य अनन्तवीर्यजीके सामने, आपसे पूर्व हुए 'वृद्ध अनन्तवीर्यजी' द्वारा लिखी प्राचीन व्याख्या भी होगी। आपने इस टीका ग्रंथमें मूल ग्रंथके अभिप्रायको विशदरूपसे पल्लवित किया है। बीच-बीचमें आपने प्रकरणगत अर्थको स्वरचित श्लोकोंमें भी व्यक्त किया है, जिससे यह ग्रंथ वाचकको गद्य-पद्यमय चम्पू- काव्य सा आनन्द देता है। इस ग्रंथमें कितने ही नय प्रमेयोंकी चर्चा है।
आपके दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं - ( १ ) सिद्धि विनिश्चय टीका, (२) प्रमाणसंग्रह भाष्य अपरनाम प्रमाणसंग्रहालङ्कार है ।
इतिहासकारों अनुसार आपका समय ई. स. ९७५ से १०२५ प्रतीत होता है। 'सिद्धिविनिश्चय' टीकाके रचयिता आचार्य अनन्तवीर्य भगवंतको कोटि कोटि वंदन । (172)